दशहरा पर्व (24 अक्टूबर) पर विशेष
–डा.जगदीश गांधी
दशहरा हमारे देश का एक प्रमुख त्योहार है। यह हर्ष और उल्लास का त्योहार है। अश्विन (क्वार) मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को इसका आयोजन होता है। भगवान राम ने इसी दिन रावण का वध किया था। इसे असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाता है। इसीलिये इस दशमी को विजयादशमी के नाम से जाना जाता है। इस दिन जगह-जगह मेले लगते हैं तथा रामलीला का आयोजन होता है। रावण का विशाल पुतला बनाकर उसे जलाया जाता है। यह हर्ष और उल्लास तथा विजय का पर्व है। व्यक्ति और समाज में सत्य, उत्साह, उल्लास एवं वीरता प्रकट हो इसलिए दशहरे का उत्सव रखा गया है। दशहरा का पर्व दस प्रकार के पापों-काम, क्रोध, लोभ, मोह मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है। दशहरे का सांस्कृतिक पहलू भी है। भारत कृषि प्रधान देश है। जब किसान अपने खेत में सुनहरी फसल उगाकर अनाज रूपी संपत्ति घर लाता है तो इस प्रसन्नता के अवसर को वह भगवान की कृपा मानता है और उसे प्रकट करने के लिए वह उनका पूजन करता है।
राम के मन के अंदर द्वन्द्व क्यों उत्पन्न हुआ?
मानव सभ्यता के पास जो इतिहास उपलब्ध है उसके अनुसार दयालु परमात्मा ने अपने अवतारों के संसार में अवतरण की प्रगतिशील श्रृंखला में 7500 वर्ष पूर्व निपट भौतिक बन गये अमर्यादित मानव जीवन को संतुलित एवं मर्यादित बनाने के लिए मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान राम को भेजा। रामायण पढ़ने से हमें इस बात की जानकारी मिलती है कि राम-रावण के बीच युद्ध हुआ था। यह तो बाहरी भौतिक युद्ध था। राम के पिता राजा दशरथ ने अपनी पत्नी कैकेयी को दो वर दे रखे थे। कैकेयी ने राजा दशरथ से दो वर के अन्तर्गत पहला राम को 14 वर्ष वनवास तथा पुत्र भरत को राजगद्दी के रूप में मांग लिए। असली युद्ध तो राम को अपने अंदर तब लड़ना पड़ा जब पिता दशरथ की एक साथ दो आज्ञायें मिली जिसमें पहली आज्ञा दशरथ ने राम को 14 वर्ष वनवास जाने की दी तथा कुछ समय बाद ही दूसरी आज्ञा यह दी कि तू वन में नहीं जाना और यदि तू वन जायेगा तो मैं तेरे बिना जी नहीं सकूँगा तथा अपने प्राण त्याग दूंगा।
राम के समक्ष सबसे बड़ा संकट कब पैदा हुआ?
पिता की पहली आज्ञा सुनकर राम आनंदित हो गये कि मुझे अपने पूज्य पिता जी की आज्ञा पालन करने का सुअवसर प्राप्त होने के साथ ही साथ मुझे वन में संत-महात्माओं के दर्शन करने एवं उनके प्रवचन सुनकर अपने जीवन में प्रभु की आज्ञाओं के जानने का सुअवसर मिलेगा तथा मुझे ईश्वर की आज्ञाओं का ज्ञान होगा एवं उन पर चलने का अभ्यास करने का सुअवसर प्राप्त होगा। किन्तु पिता की दूसरी आज्ञा सुनकर कि प्रिय राम तुम वन में न जाओ और यदि तुम वन गये तो मैं प्राण त्याग दूँगा। इससे राम के मन में द्वन्द्व उत्पन्न हो गया कि पिता की इन दो आज्ञाओं में से किस आज्ञा को माँनू? क्या करूँ, क्या न करूँ? मैं पिता की पहली आज्ञा मानकर वन में जाऊँ या पिता की दूसरी आज्ञा मानकर और वन न जाकर अयोध्या का राजा बन जाऊँ?
राम का संकट कैसे दूर हुआ?
राम ने अपने ऊपर आये इस संकट की घड़ी में हाथ जोड़कर परम पिता परमात्मा से प्रार्थना की और पूछा कि मैं क्या करूँ? पिता की पहली आज्ञा माँनू या दूसरी? राम को परमात्मा से उत्तर मिल गया। परमात्मा ने राम से कहा, तू तो मनुष्य है और हमने मनुष्य को विचारवान बुद्धि दी है। मनुष्य उचित-अनुचित का विचार कर सकता है। मनुष्य यह विचार कर सकता है कि मेरे किसी भी कार्य का अंतिम परिणाम क्या होगा? पशु यह विचार नहीं कर सकता। क्या तू अपनी विचारवान बुद्धि का प्रयोग करके उचित और अनुचित का निर्णय नहीं कर सकता? राम का द्वन्द्व उसी पल दूर हो गया। राम को यह विचार आया कि यदि राजा दशरथ के वचन की मर्यादा का पालन करने के लिए मैं वन में न गया तो पूरे समाज में चर्चा फैल जायगी कि राजा अपने वचन से मुकर गया है। एक राजा के इस अमर्यादित व्यवहार के कारण समाज अव्यवस्थित हो जायगा। अतः मुझे वन अवश्य जाना है।
दशरथ तथा राम की सोच में क्या अंतर था?
राम ने प्रभु इच्छा को जानकर दृढ़तापूर्वक वन जाने का निर्णय कर लिया। राम ने यह निर्णय इस आधार पर लिया कि यदि राजा की 14 वर्ष वन जाने की आज्ञा के पालन तथा वचन की लाज एक बेटा नहीं रखेगा तो समाज में क्या सन्देश जायेगा? परमात्मा द्वारा निर्मित मानव समाज परमपिता परमात्मा का अपना निजी परिवार है तथा इस सृष्टि के सभी मनुष्य उसकी संतानें हैं। मित्रों, आप देखे, दशरथ की दृष्टि अपने प्रिय पुत्र के प्रति अगाध भौतिक प्रेम व अति मोह एवं स्वार्थ से भरी होने के कारण उनका राम को कई तरीके से वन न जाने की सीख देना तथा यदि फिर भी राम वन चले जाय तो प्राण त्यागने तक का निर्णय कर लेना परमात्मा एवं उसके समाज के व्यापक हितों के विरूद्ध है। वहीं दूसरी ओर उनके बेटे राम की दृष्टि आध्यात्मिक होने के कारण पिता की अतिवेदना की बिना परवाह किये हुए ही उनका वन जाने का निर्णय समाज को मर्यादित होने की सीख देने वाला था। मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने अपने जीवन से समाज को यह सीख दी कि मानव की एक ही मर्यादा या धर्म या कर्त्तव्य है कि यदि अपनी और अपने पिता की इच्छा और परमात्मा की इच्छा एक है तो उसे मानना चाहिये किन्तु यदि हमारी और हमारे शारीरिक पिता की इच्छा एक हो किन्तु परमात्मा की इच्छा उससे भिन्न हो तो हमें अपनी और अपने पिता की इच्छा का नहीं वरन् केवल परमात्मा की इच्छा और आज्ञा का पालन करना चाहिये। परमात्मा सबसे बड़ा है। वे सारी मानव जाति का पिता, माता तथा बन्धु-सखा है।
सीता अपने अंदर के द्वन्द्व से कैसे ऊपर उठी
इसी तरह सीता माता द्वारा लिया गया निर्णय संसार की स्त्रियों के लिए एक सुन्दर उदाहरण है। वन जाते समय राम अपनी पत्नी सीता से कहते हैं – हे जनक नंदनी, तुम वन जाने की जिद्द न करो। तुम सुकोमल हो। वन की भयंकर तकलीफों को तुम सहन नहीं कर सकोगी। हे सीते, तुम वन में न जाओ और तुम महल में ही रहो। पति राम की यह आज्ञा सुनकर सीता दुःखी हो गई और सोचने लगीं कि ‘क्या करूँ और क्या न करूँ?’ सीता के मन में द्वन्द्व शुरू हो गया। सीता ने संकट की इस घड़ी में हाथ जोड़कर परमात्मा का स्मरण किया। सीता को अंदर से उत्तर मिल गया। सीता तू मनुष्य है तूझे विचारवान बुद्धि मिली है। पति संकट में हो और यदि पत्नी साथ नहीं देगी तो परमात्मा के व्यापक समाज में परिवार की संस्था ही कमजोर पड़ जायगी। तू अपने पति की आज्ञा को मानकर यदि तू वन में न गई तो समाज में गलत सीख चली जायेगी और सभी स्त्रियां ऐसा ही आचरण करेंगी। परमात्मा द्वारा निर्मित समाज ही कमजोर हो जायगा। सीता ने निश्चय किया कि मैं परमात्मा द्वारा निर्मित समाज के लिए गलत उदाहरण नहीं बनूँगी और प्रभु इच्छा के पालन के लिए वन जाऊँगी और सीता वन न जाने की राम की आज्ञा को तोड़कर उनके साथ वन गयी।
धैर्यपूर्वक सहन करने पर परमात्मा बढ़ा देता है आध्यात्मिक शक्ति
प्रभु की राह से विमुख होकर पिता दशरथ समाज को गलत सीख देकर संसार से चले गये। बेटे राम ने वन जाने का निर्णय लेकर पिता के वचन की लाज बचाने की कोशिश की। प्रभु की इच्छा के विरूद्ध जाने का दण्ड बहुत खतरनाक है। आज राजा दशरथ का नाम लेने वाले कम लोग हैं। सीता तथा राम के अनेक मंदिर हैं। दशरथ का एक भी मंदिर नहीं है। प्रभु की राह चलने के कारण संसार में युगों-युगों तक जय सिया-राम होती रहेगी जो भगवान की राह पर धैर्यपूर्वक सहन करते हैं परमात्मा उनकी आध्यात्मिक शक्ति बढ़ा देता है। समाज में जब मानव जीवन अमर्यादित हो गया तब मानव जीवन में मर्यादा पालन की भावना उत्पन्न करने के लिए परमपिता परमात्मा ने मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान राम को इस संसार में भेजा और उन्होंने अपने जीवन से मर्यादा पालन की शिक्षा देकर मानव जीवन को मर्यादित बनाया।
युगावतार भारी कष्ट उठाकर मनुष्य को आध्यात्मिक जीवन जीने की राह दिखाते हैं- यदि राम अपने पिता का त्याग कर प्रभु इच्छा के पालन के लिए वन को न गये होते, यदि सीता अपने पति राम की इच्छा का उल्लंघन कर प्रभु प्रेम के लिए वन न गई होती तो समाज की क्या स्थिति होती? सम्पूर्ण समाज मर्यादा विहीन बन गया होता। सर्वत्र रावण जैसे दबंग एवं मर्यादाविहीन व्यक्तियों का राज होता। युग-युग में परमात्मा की ओर से संसार में युगावतार के रूप मंे आकर साधु प्रवृत्ति के लोगों का कल्याण करते हैं तथा दुष्ट प्रकृति के लोगों का विनाश करते हैं। मनुष्य को उसके कर्त्तव्यों का बोध कराकर उसके चिन्तन में परिवर्तन कर देते हैं। युगावतार जादू की छड़ी घुमाकर सारे दुःख दूर नहीं करते वरन् भारी कष्ट उठाकर मनुष्य को आध्यात्मिक जीवन जीने की राह दिखाते हैं।
‘हनुमान’ ने प्रभु की इच्छा और आज्ञा को पहचान लिया
हनुमान ने परमात्मा को पहचान लिया और उनके चिन्तन में भगवान आ गये तो वह एक छलाँग में मीलों लम्बा समुद्र लांघकर सोने की लंका पहुँच गये। हनुमान में यह ताकत परमात्मा की इच्छा तथा आज्ञा को पहचान लेने से आ गयी। प्रभु भक्त हनुमान ने पूरी लंका में आग लगाकर रावण को सचेत किया। हनुमान के चिन्तन में केवल एक ही बात थी कि प्रभु का कार्य के बिना मुझे एक क्षण के लिए भी विश्राम नहीं करना है। हनुमान ने बढ़-चढकर प्रभु राम के कार्य किये। हनुमानजी की प्रभु भक्ति यह संदेश देती है कि उनका जन्म ही राम के कार्य के लिए हुआ था। हमें भी हनुमान जी की तरह अपनी इच्छा नहीं वरन् प्रभु की इच्छा और प्रभु की आज्ञा का पालन करते हुए प्रभु का कार्य करना चाहिए।
‘राम’ ने प्रभु की इच्छा और आज्ञा को पहचान लिया
लंका के राजा रावण ने अपने अमर्यादित व्यवहार से धरती पर आतंक फैला रखा था। राम ने रावण को मारकर धरती पर मर्यादाओं से भरे ईश्वरीय समाज की स्थापना की। चारों वेदों का ज्ञाता रावण ने अपनी इच्छा पर चलने के कारण अपना तथा अपने कुटुम्ब का विनाश करा लिया। जबकि जटायु, रीक्ष-वानरों, केवट, शबरी आदि ने प्रभु की इच्छा तथा आज्ञा को पहचानकर प्रभु का कार्य किया। परमात्मा की ओर से राम की आत्मा में कोई पवित्र पुस्तक अवतरित नहीं हुई है। राम के मर्यादापूर्ण जीवन चरित्र पर आज से लगभग 500 वर्ष पूर्व संत तुलसीदास द्वारा अपनी अन्तःप्रेरणा से लिखी रामचरित मानस सबसे अधिक लोकप्रिय हुई हैं। मानव जाति के लिए रामचरित मानस की शिक्षायें अनुकरणीय है। इसलिए हमें भी राम की तरह अपनी इच्छा नहीं वरन् प्रभु की इच्छा और प्रभु की आज्ञा का पालन करते हुए प्रभु का कार्य करना चाहिए।
विद्यालय पूजा, इबादत, प्रेयर, अरदास का भवन है
विद्यालय एक ऐसा स्थान है जहाँ सभी धर्मों के बच्चे तथा सभी धर्मों के टीचर्स एक स्थान पर एक साथ मिलकर एक प्रभु की प्रार्थना करते हैं। प्रार्थना का यही सही तरीका है। सारी सृष्टि को बनाने वाला और संसार के सभी प्राणियों को जन्म देने वाला परमात्मा एक ही है। सभी अवतारों एवं पवित्र ग्रंथों का स्रोत एक ही परमात्मा है। हम प्रार्थना कहीं भी करें, किसी भी भाषा में करें, उनको सुनने वाला परमात्मा एक ही है। अतः परिवार तथा समाज में भी स्कूल की तरह ही सभी लोग बिना किसी भेदभाव के एक साथ मिलकर एक प्रभु की प्रार्थना करें तो सबमें आपसी प्रेम भाव भी बढ़ जायेगा और संसार में सुख, एकता, शान्ति, न्याय एवं अभूतपूर्व भौतिक एवं आध्यात्मिक समृद्धि आ जायेगी। विद्यालय है सब धर्मों का एक ही तीरथ धाम – क्लास रूम शिक्षा का मंदिर, बच्चे देव समान। स्कूल पूजा, इबादत, प्रेयर, अरदास का भवन है।