सैयद अली शाह गिलानी दिल से दिल्ली की दूरी को कभी नहीं पाट पाए। कश्मीर मसले पर उनके रुख पर पाकपरस्ती हावी हो जाती थी। लिहाजा, कश्मीर मसले पर बातचीत की गंभीर कोशिश कई बार उनके पाकिस्तान प्रेम की वजह से ही विफल हुई। उनके बेहद कठोर रवैये ने उन्हें हार्ड लाइनर अलगाववादी नेता बनाया। वे कश्मीर में आतंकी गुटों के प्रिय बने रहे। जमात ए इस्लामी के कट्टरपंथी धारा का प्रतिनिधित्व करने वाले गिलानी हमेशा आतंकियों को भड़काकर कट्टरपंथ की नई पौध तैयार करने में जुटे रहे।
गिलानी हमेशा भारत सरकार की गंभीर कोशिशों की राह में रोड़ा खड़ा करने का प्रयास करते रहे। केंद्रीय सरकारों का रुख कई बार उनके इसी रवैये के चलते तल्ख रहा। उनको काफी समय तक जेल में रखा गया और वे घर में नजरबंद रहे। बुरहान वानी की मौत के बाद जब सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल कश्मीर गया तो गिलानी ने उनसे मुलाकात नहीं की। इसे भी कश्मीर में बड़ा धड़ा उनके गलत फैसले के रूप में देखता रहा।
मोदी सरकार आने के बाद गिलानी और उनके कट्टरपंथी साथियों पर और शिकंजा कसा गया। टेरर फंडिंग मामलों में उनकी और नजदीकी लोगों की जांच एनआईए ने शुरू कर दी।
ये हो सकते हैं सियासी वारिस
अलगाववादी नेता के सियासी वारिसों में उनके दो बेटों, दामाद के अलावा उनके करीबी रहे गुलाम नबी सुमजी, कट्टरपंथी मसर्रत आलम, कश्मीर बार एसोसिएशन के पूर्व चेयरमैन मियां क्यूम, आजीवन कारावास की सजा काट रहे डॉ. कासिम फख्तू और पाकिस्तान में बैठे सैयद अब्दुल्ला गिलानी के नाम लिए जा रहे हैं। लेकिन जानकार मानते हैं कि अब हालात ऐसे नहीं हैं कि इनमें से कोई भी खुद को खड़ा कर पाए। गिलानी के बेटों समेत अन्य प्रमुख रिश्तेदार हुर्रियत की अलगाववादी सियासत से कन्नी काट रहे हैं। फिलहाल गिलानी युग के अंत के बाद सुरक्षाबलों और सरकार के सामने बड़ी चुनौती यही है कि कोई दूसरा गिलानी घाटी में पैदा न होने पाए।