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यूपी का रण : सिद्धांतों की शहादत का दौर, दो बार धोखा खा चुकी भाजपा ने मायावती की सरकार बनवाई, पर तीसरी बार भी निभ नहीं पाई

वर्ष 2002 ने प्रदेश की राजनीति में नए सियासी रिश्तों के बनने-बिगड़ने का खेल दिखाया। यह वो दौर रहा जब सिद्धांतों की शहादत पर सियासत की नई इबारत लिखते हुए भाजपा ने तीसरी बार समर्थन देकर उन्हीं मायावती की सरकार बनवा दी, जिनसे वह दो बार धोखा खा चुकी थी। बहरहाल जल्द ही भाजपा-बसपा का ‘तीसरा तलाक’ भी हो गया। इसी दौर में मुलायम व कल्याण की राजनीतिक दोस्ती व दुश्मनी के नए फलसफे लिखे गए। जो खासे दिलचस्प भी रहे और सिद्धांतों को शूली पर लटकाने की मिसाल भी। दोस्ती दुश्मनी में बदली तो दुश्मनी दोस्ती में। मुलायम जैसे घोर राजनीतिक दुश्मन की मुख्यमंत्री पद पर ताजपोशी की राह आसान बनाने को भाजपा मजबूर दिखी। इस दौर में दो सरकारें बनीं, एक मायावती दूसरी मुलायम सिंह की। दिलचस्प यह था कि दोनों सरकारों के गठन का रास्ता कहीं न कहीं भाजपा ने ही प्रशस्त किया। वर्ष 1993 से शुरू हुआ एक सत्र में दो मुख्यमंत्री बनने का संयोग इस कालखंड में भी जारी रहा। अंतर सिर्फ इतना था कि 1993 में पहले मुलायम मुख्यमंत्री बने थे और फिर उनकी जगह मायावती और वर्ष 2002 में पहले मायावती मुख्यमंत्री बनीं, उसके बाद मुलायम सिंह यादव।
सियासी समीकरण बिगड़े, सिमटने लगी भाजपा
अब बात वर्ष 2002 के विधानसभा चुनाव की। उत्तराखंड अलग हो चुका था। 425 सीटों वाली विधानसभा 403 सीटों की हो चुकी थी। विधानसभा चुनाव हुए तो राजनीतिक परिदृश्य काफी बदल चुके थे। राममंदिर आंदोलन के नायक कल्याण सिंह की भाजपा से विदाई हो चुकी थी। कल्याण सिंह राष्ट्रीय क्रांति पार्टी बनाकर भाजपा को मिटा देने की कसम के साथ मैदान में थे। प्रदेश के राजनीतिक गणित और भाजपा की रणनीतिक चालों से वाकिफ कल्याण भाजपा के लिए बड़ी चुनौती बन गए।
कल्याण के बाद मुख्यमंत्री बने रामप्रकाश गुप्त की विदाई हो चुकी थी और उनकी जगह 28 अक्तूबर 2000 से राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री पद की कमान संभाले थे। उन्होंने कुर्सी संभालते ही 2002 के चुनावी समर को जीतने की तैयारी शुरू कर दी थी। किसानों के धान की सरकारी खरीद शुरू करने, मंडल कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार पिछड़ों को मिल रहे 27 प्रतिशत आरक्षण को गैर यादव पिछड़ों  व गैर जाटव दलितों में उनकी आबादी के अनुपात में बांटने के लिए आरक्षण में आरक्षण देने का फॉर्मूला लागू करने जैसे उनके उल्लेखनीय काम थे।

भारी पड़ा कल्याण का विद्रोह व राममंदिर पर बदला नजरिया
कार्यकर्ताओं में जीत का उत्साह बनाए रखने के लिए उस कालखंड में राजनाथ का यह दावा, ‘जीते कोई, लेकिन सरकार हम ही बनाएंगे’ काफी चर्चा में रह। पर, राजनाथ का कोई उपाय कल्याण की बगावत से होने वाले नुकसान से भाजपा को बचा नहीं पाया। रही-सही कसर पूरी कर दी राम जन्मभूमि पर भाजपा के बदलते रुख ने। भाजपा ने उत्तर प्रदेश व केंद्र में अपनी सरकारों को सुरक्षित रखने एवं गठबंधन के साथियों को साधे रखने के लिए राममंदिर के निर्माण के वादे पर जिस तरह अपना रुख बदला, उसका भी उसे खामियाजा भुगतना पड़ा। 
ढांचा गिरने के बाद 1993 में 177 और 1996 में 174 सीटों पर जीती भाजपा 88 सीटों पर सिमट गई।
लगभग 18 वर्ष पहले ही गठित बसपा को उससे ज्यादा 98 सीटें मिलीं, जबकि करीब दस साल पहले बनी मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी 143 विधायकों की जीत के साथ सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। खुद को देश की सबसे पुरानी पार्टी कहने वाली कांग्रेस सिर्फ  25 सीटों पर सिमट गई। अजित सिंह के रालोद को 14 सीटें मिलीं।

सबसे बड़ी पार्टी के बाद भी सपा से दूर थी सत्ता
भाजपा के कलराज मिश्र और राजनाथ सिंह चुनाव नतीजे आने के बाद से ही बहुमत नहीं होने के कारण सरकार नहीं बनाने और विपक्ष में बैठने की बात कर रहे थे। पर, अंत में भाजपा के पूर्व सांसद राम प्रकाश त्रिपाठी जैसा वह धड़ा पार्टी हाईकमान से अपनी बात मनवाने में सफल रहा जो बसपा का साथ देकर सरकार बनवाने की पैरवी कर रहा था। वर्ष 1993 में जहां भाजपा को सपा और बसपा ने गठबंधन करके सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद सरकार नहीं बनाने दी थी, तो 2002 में मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी के 143 सीटों पर जीत के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने के बावजूद उसकी सरकार नहीं बन पाई।

कलराज का इस्तीफा, फूटा भाजपा की अंतर्कलह का बम
नेताओं की खेमेबाजी से जूझ रही भाजपा को मिली हार ने तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष कलराज मिश्र को इतना क्षुब्ध कर दिया कि वे अपने गुस्से को काबू में नहीं रख सके। चुनाव बाद समीक्षा के लिए बुलाई गई प्रदेश कार्यसमिति की बैठक में उन्होंने खुले मंच से पराजय के लिए प्रदेश के प्रमुख नेताओं की एक-दूसरे की टांग खिंचाई को जिम्मेदार ठहराते हुए अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया। इसने भाजपा की और किरकिरी करा दी। भाजपा हाईकमान ने भी शायद इसे बुरा माना और उनका इस्तीफा स्वीकार कर लिया। उनकी जगह विनय कटियार को अध्यक्ष बनाया गया।
भाजपा को देना ही पड़ा बसपा को समर्थन
किसी भी पार्टी की सरकार न बनते देख पहले तो राष्ट्रपति शासन लगा, लेकिन बाद में बसपा से तीसरी बार गठबंधन करने के पक्षधर नेताओं के दबाव में भाजपा व बसपा गठबंधन की सरकार बनी। भाजपा और रालोद के समर्थन से मायावती ने 3 मई 2002 को तीसरी बार प्रदेश के मुख्यमंत्री पद को संभाला। भाजपा के नेता लालजी टंडन, ओमप्रकाश सिंह, कलराज मिश्र, हुकुम सिंह, रामप्रकाश त्रिपाठी सहित अन्य कुछ नेता उनके मंत्रिमंडल में शामिल हुए।

मायावती फिर अपने एजेंडे पर चल पड़ीं, बढ़ी रार
मायावती ने मुख्यमंत्री बनते ही ऐसे काम फिर शुरू कर दिए कि भाजपा का बसपा से तीसरा साथ भी लंबे समय तक निभ पाना मुश्किल दिखने लगा। मायावती ने नवंबर आते-आते कुंडा के विधायक रघुराज प्रताप सिंह राजा भैया को गिरफ्तार कराकर जेल में बंद कर दिया। वर्ष 2003 की शुरुआत ही भाजपा व बसपा के बीच सीधे टकराव से हुई। मायावती ने राजा भैया पर आतंकवाद निरोधक अधिनियम (पोटा) के तहत केस लगा दिया। मायावती की इनसे नाराजगी का कारण वह घटनाक्रम था जिसमें राजा भैया और धनंजय सिंह सहित 20 विधायकों ने राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री से मिलकर मायावती सरकार को बर्खास्त करने की मांग की थी।

ताज कॉरिडोर प्रकरण ने  रही-सही कसर भी पूरी कर दी
इसी बीच ताज हेरिटेज कॉरिडोर के निर्माण में गड़बड़ी को लेकर मायावती सरकार और केंद्र की तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के बीच संबंध और बिगड़ गए। इसकी वजह बिना निर्धारित प्रक्रिया पूरी किए कराए जा रहे निर्माण कार्य पर तत्कालीन केंद्रीय पर्यटन मंत्री जगमोहन का आपत्ति उठाना था। नाराज मायावती ने 29 जुलाई को पत्रकार वार्ता बुलाई और जगमोहन को केंद्रीय मंत्रिमंडल से हटाने की मांग कर डाली। मायावती ने 26 अगस्त को रैली बुलाई। पर, भाजपा को कहीं से यह भनक लग गई कि मायावती रैली से पहले रात में ही सरकार के त्यागपत्र की घोषणा कर राज्यपाल से सरकार भंग करने की सिफारिश कर सकती हैं। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष विनय कटियार और विधायक लालजी टंडन  ने 25 अगस्त की देर रात राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री से मुलाकात कर उन्हें सरकार से समर्थन वापस लेने का पत्र सौंप दिया। मायावती कैबिनेट बुलाकर सरकार भंग करने की सिफारिश वाला पत्र लेकर राज्यपाल के पास पहुंचतीं तब तक भाजपा खेल कर चुकी थी।
भाजपा ने मुलायम की सत्ता में वापसी की राह आसान की
मुलायम सिंह यादव की 2003 में सत्ता में वापसी की राह उसकी धुर विरोधी भाजपा की तत्कालीन केंद्र सरकार ने ही आसान की थी। पार्टी के उच्च पदस्थ नेताओं ने उस समय जो कुछ बताया था उससे भी इसका पता चलता है। दो बार धोखा खाने के बावजूद भाजपा के कुछ नेताओं के बसपा को समर्थन देकर सरकार बनवाने की जिद से नाराज तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पहले ही आगाह कर दिया था कि इस बार बसपा से नहीं निभी तो वह राष्ट्रपति शासन या चुनाव कराने की राह को नहीं चुनेंगे बल्कि वैकल्पिक सरकार बनवाने को वरीयता देंगे। भले ही मुलायम सिंह यादव की सरकार बन जाए।

भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष विनय कटियार और विधायक लालजी टंडन 25 अगस्त 2003 की देर रात ही राज्यपाल से मुलाकात कर मायावती सरकार से समर्थन वापस लेने का पत्र सौंप चुके थे। उधर, मायावती 26 अगस्त को रैली कर रही थीं तो दूसरी ओर मुलायम सरकार बनाने का दावा पेश कर रहे थे। इसी दिन भाजपा संसदीय बोर्ड की दिल्ली में हुई बैठक में यह फैसला किया गया कि विधानसभा भंग करने से बेहतर विकल्प वहां राष्ट्रपति शासन लगाया जाना है, क्योंकि इतनी जल्दी फिर से चुनाव ठीक नहीं है। सहमति बनी कि सबसे बड़े दल के नाते मुलायम सिंह अगर सरकार बनाने की स्थिति में हों तो उनकी सरकार बनने दी जाए। मुलायम की सरकार बनने पर भी भाजपा नेता केशरीनाथ त्रिपाठी को जिस तरह लंबे समय तक विधानसभा अध्यक्ष बनाए रखा गया, उससे भी सरकार बनवाने में भाजपा की भूमिका समझ में आ सकती है। केशरीनाथ ने 19 मई 2004 को तब त्यागपत्र दिया जब केंद्रीय नेतृत्व ने उनसेे ऐसा करने को कहा।    
बसपा में बिखराव, शुरू हुआ महा दलबदल
मुलायम के सरकार बनाने के दावे के साथ प्रदेश में नाटकीय घटनाक्रम शुरू हुए। 27 अगस्त को बसपा के 13 विधायकों ने राज्यपाल को पत्र देकर मुख्यमंत्री पद के लिए मुलायम सिंह का समर्थन करने की बात कही। बसपा ने आपत्ति की और उनके आचरण को स्वेच्छा से दल त्याग का प्रमाण मानते हुए उनकी सदस्यता निरस्त करने की मांग की। बसपा विधायक दल के तत्कालीन नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने उस समय विधानसभा अध्यक्ष केशरीनाथ त्रिपाठी को भी एक याचिका दी। पर, विधानसभा अध्यक्ष ने बसपा के तर्क को स्वीकार नहीं किया। बसपा से बगावत करने वाले 13 विधायकों का समर्थन मिलते ही मुलायम सिंह यादव ने 210 विधायकों की सूची राज्यपाल को सौंप दी।

बसपा में फूट और टूट बढ़ती ही रही
बसपा के 37 और विधायकों ने 6 सितंबर को बैठक की और विधानसभा अध्यक्ष केशरीनाथ त्रिपाठी से मिलकर अलग दल के रूप में मान्यता मांगी। त्रिपाठी ने उन्हें शाम को ही लोकतांत्रिक बहुजन दल के रूप में मान्यता दे दी। बाद में इसका सपा में विलय हो गया।

सदन की लड़ाई न्यायालय तक पहुंची
बसपा ने 13 विधायकों के दलबदल के खिलाफ उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ में याचिका दायर कर विधानसभा अध्यक्ष के फैसले को चुनौती दी। उच्च न्यायालय ने 12 मार्च 2006 को निर्णय सुनाते हुए बसपा के 37 विधायकों के विभाजन को अलग दल के रूप में मान्यता देने के विधानसभा अध्यक्ष के फैसले को खारिज कर दिया। साथ ही विधानसभा अध्यक्ष से 13 विधायकों की सदस्यता पर अपने फैसले पर पुन: विचार कर निर्णय करने का आग्रह किया। इस निर्णय को दोनों ही पक्षों ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। सर्वोच्च न्यायालय ने 14 फरवरी, 2007 को निर्णय देते हुए बसपा में टूट को अवैध ठहराया। साथ ही 13 विधायकों की सदस्यता खारिज कर दी। सर्वोच्च न्यायालय ने विधानसभा अध्यक्ष के फैसले को भी पलट दिया। पर, इसका कोई नतीजा नहीं निकला क्योंकि विधानसभा का कार्यकाल पूरा हो चला था। अप्रैल-मई 2007 में राज्य में विधानसभा चुनाव हुए इसमें बसपा को पूर्ण बहुमत मिला।

दिल बदले तो पाले भी…
राज्यपाल ने मुलायम सिंह यादव को 29 अगस्त 2003 को तीसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। भाजपा के तत्कालीन नेता लालजी टंडन ने राज्यपाल के फैसले को सही ठहराते हुए कहा कि इससे लोकतंत्र मजबूत होगा। उस समय तक मुलायम के धुर विरोधी माने जाते रहे चौधरी अजित सिंह ने भी उनकी सरकार को समर्थन की घोषणा कर दी। मुलायम को कारसेवकों का हत्यारा बताने वाले कल्याण सिंह उनके लिए बहुमत जुटाते दिखे। भले ही मुलायम ने 1999 में विदेशी मूल का मुद्दा उठाते हुए सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया था, पर सोनिया ने कांग्रेस विधायकों से भी उनकी सरकार को समर्थन दिलाया। वर्ष 2002 में मंत्री न बन पाने से नाराज चल रहे भाजपा के भी कुछ विधायक टूटकर मुलायम सिंह के साथ खड़े हो गए।
लौटकर भी भाजपा का नहीं कर सके ‘कल्याण’
इस कालखंड की चर्चा कल्याण के मुलायम के साथ के लिए तो की ही जाएगी, लेकिन उससे ज्यादा उनके प्रायश्चित के लिए भी स्मरण की जाएगी। भाजपा को बड़ा राजनीतिक नुकसान पहुंचाने के बाद कल्याण के भीतर का हिंदुत्व और स्वयंसेवकत्व जगने लगा। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, जिन्हें 1999 में निशाना बनाकर ही कल्याण भाजपा से बाहर हुए थे, वह अपने जन्मदिन की पूर्व संध्या पर 24 दिसंबर 2003 को लखनऊ आए थे। वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव की बयार बहने लगी थी। पूर्व मंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता लालजी टंडन के 13 माल एवेन्यू स्थित आवास पर शाम को वाजपेयी का जन्मदिन समारोह था। कल्याण उसमें पहुंचे। उन्होंने यह कहते हुए, ‘अटल पर एक अंगुली उठाई थी। आज पांचों अंगुली जोड़कर लड्डू खिला रहा हूं’ प्रायश्चित किया। कुछ दिन बाद उनकी भाजपा में वापसी हो गई। कल्याण तो भाजपा में लौट आए लेकिन उनके साथ भाजपा छोड़कर गया वोट नहीं लौटा। लोकसभा चुनाव में भाजपा को प्रदेश में करारी हार का सामना करना पड़ा। वह 10 सीटों पर सिमट गई।

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