Saturday , November 23 2024

‘1990 की उस काली रात को यादकर आज भी छलक उठती हैं आंखें’

कानपुर, जेएनएन। कश्मीरी पंडितों ने क्या-क्या जुल्म नहीं सहे। घर से बेघर हुए तो अपनी आंखों से महिलाओं का अपमान भी होते देखा। दीवारों पर लिखा था, ‘कश्मीरी पंडित पुरुष कश्मीर छोड़कर भाग जाएं, घर की महिलाओं को पीछे छोड़ जाएं।’ एक के बाद एक घटनाएं होने लगीं तो घर से निकलना बंद हो गया। इस पर दिल को छलनी कर देने वाले यह बोल लाउडस्पीकर से बोले जाने लगे। आखिर 1990 की एक रात दो बजे ट्रक से पूरा परिवार वहां से जान बचाकर भागा। यह आपबीती बताते हुए कश्मीरी पंडित सभा कानपुर के पूर्व अध्यक्ष रवि रैना भावुक हो गए।

तीन दशक वाकई एक लंबा समय अंतराल होता है। मगर, रवि रैना के दिलो दिमाग में 1989-90 का कश्मीर आज भी किसी घाव की तरह ताजा है। गुजरे दिनों की चर्चा छेड़ी तो छूटते ही बोले, कश्मीरी पंडितों को 1947 में नहीं बल्कि आज आजादी मिली है। उन्हें तीन दशक से इस दिन का इंतजार था। 1990 में परिवार के साथ कश्मीर से रातोंरात जान बचाकर भागने की टीस आज भी मन में है। तब साथ में माता-पिता, दादा, चाचा, ताऊ के अलावा घर की महिलाएं थीं। वर्तमान में स्वरूप नगर में रहने वाले लेदर कारोबारी रवि रैना के मुताबिक उनकी नई-नई शादी हुई थी। सिर्फ वे ही वहां से नहीं भागे थे।

वहां से चार लाख कश्मीरी पंडित भागे थे। किसी के पास खाने के लिए कुछ नहीं था और पैसे भी नहीं थे। किसी तरह जम्मू पहुंचे। वहां से जिनके रिश्तेदार थे, वे उनके यहां चले गए। जिनके रिश्तेदार नहीं थे वे शरणार्थी शिविरों में रहे। टेंट भी ऐसी जगह लगे थे जहां अक्सर सांप, बिच्छू निकल आते थे। बोले, 1947 में देश तो आजाद हो गया था लेकिन कुछ राक्षस हमारे ऊपर इंतजार कर रहे थे। उन्हें इंतजार था कि कभी तो कोई रहनुमा आएगा और आखिरकार यह फैसला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ले लिया। उन्होंने कहा कि कश्मीरी पंडितों की वहां जो संपत्ति थी, उन पर से कब्जा हटाकर उन्हें वापस दिलाई जाए।

टीका लगाने पर माथे पर ठोंक दी जाती थी कील

‘कश्मीरी पंडितों के लिए हालात बहुत ही खराब थे। पुरुषों को अपनी जान और महिलाओं को लाज बचाना मुश्किल था। पुरुष टीका लगाते थे तो माथे पर कील ठोंक दी जाती थी। दिनदहाड़े घरों में घुसकर महिलाओं व बेटियों से दुष्कर्म किया जाता था। जो विरोध करता था, उसकी हत्या कर दी जाती थी।Ó यह कहना है कश्मीरी पंडित सभा के सचिव डॉ. पवन कौल की पत्नी अंबिका कौल का। उन्होंने अपने जीवन के 19 वर्ष जम्मू के बोड़ी तालाब में गुजारे हैं। आज भी उन दिनों को याद कर सिहर उठती हैं।

शास्त्री नगर निवासी डॉ. पवन कौल के पिता सीके कौल कश्मीर में उत्पीडऩ के चलते वर्ष 1958 में कानपुर आ गए थे। यहां उन्होंने फजलगंज स्थित एक बल्ब फैक्ट्री में काम किया। काम करते हुए पढ़ाई की और भारतीय स्टेट बैंक में नौकरी करने लगे। वर्ष 1971 में कानपुर में ही डॉ. पवन कौल का जन्म हुआ। जम्मू में रिश्तेदारों के रहने की वजह से उनका वहां आना-जाना लगा रहा। 1997 में जम्मू में रहने वाली अंबिका से उनका विवाह हुआ। अंबिका के मुताबिक उन्होंने बचपन से कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के साथ होने वाले अत्याचार को बहुत करीब से देखा है। घरों में घुसकर सामान बाहर फेंक दिया जाता था।

1990 में हालात बदतर हो गए। कश्मीरी पंडितों के घरों के बाहर पर्चे चस्पा कर पुरुषों को धमकी दी जाती थी कि वे महिलाओं और बेटियों को घर में छोड़ दें और खुद घाटी छोड़कर चले जाएं। कश्मीरी पंडितों पर होने वाले अत्याचार की खबरों को मीडिया भी ठीक से नहीं दिखा पाता था। 2014 के बाद मीडिया ने घाटी की सच्चाई दिखानी शुरू की। तभी से जम्मू कश्मीर के हालात तेजी से बदले। आज केंद्र सरकार ने जो कदम उठाया है, उससे जुल्म की शिकार माताओं-बहनों की आत्मा को निश्चित ही शांति मिलेगी।