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अब कोरोना के डेल्टा वेरिएंट ने दी तबाही की दस्तक, समझें कहां इसका प्रसार होगा अधिक घातक

एशिया में डेल्टा वेरिएंट के लगातार बढ़ते प्रसार ने विशेषज्ञों को चिंता में डाल दिया है। सबसे ज्यादा फिक्र ग्रामीण इलाकों को लेकर है, जहां न सिर्फ स्वास्थ्य ढांचे की कमी है, बल्कि जांच सुविधाओं और कोविड-19 टीकों तक पहुंच भी बहुत सीमित है। फिलिपीन जीनोम सेंटर की प्रमुख सिंथिया सलोमा कहती हैं, अगर डेल्टा या उस जैसे अन्य घातक वेरिएंट ग्रामीण इलाकों में पांव पसार लेंगे तो स्वास्थ्य तंत्र के लिए कोरोना के कहर पर काबू पाना और भी मुश्किल हो जाएगा। अन्य एशियाई मुल्कों, खासकर भारत में डेल्टा के फैलाव को लेकर सामने आ रही खबरें सबसे ज्यादा परेशान करने वाली हैं। देश में आई दूसरी बेहद गंभीर लहर के लिए मुख्यतः सार्स-कोव-2 वायरस के इसी स्वरूप को जिम्मेदार माना जाता है।

प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के वरिष्ठ विषाणु रोग विशेषज्ञ रमनन लक्ष्मीनारायण के मुताबिक डेल्टा वेरिएंट इतनी तेज गति से फैलता है कि स्वास्थ्य ढांचा इसके सामने बेबस नजर आने लगता है। भारत, इंडोनेशिया, मलेशिया, थाईलैंड, बांग्लादेश सहित विभिन्न एशियाई देश इसके प्रकोप के गवाह बन चुके हैं। मई से जुलाई के बीच इन देशों में रोजाना दर्ज हो रहे नए मरीजों और मौतों की संख्या चरम पर पहुंच गई थी। यही नहीं, टीकाकरण की धीमी रफ्तार से वहां बड़ी आबादी के वायरस की जद में आने का खतरा भी बना हुआ है।

दूसरी लहर में ज्यादा लोगों में बने एंटीबॉडी
भारत में जून-जुलाई में 28 हजार लोगों पर हुए एक देशव्यापी सर्वे में 68 फीसदी में सार्स-कोव-2 वायरस से लड़ने वाले एंटीबॉडी बनने की बात सामने आई थी। इन प्रतिभागियों में से दो-तिहाई ऐसे थे, जिन्हें कोविड-19 टीका नहीं लगा था। यानी उन्हें संक्रमण के चलते वायरस के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता हासिल हुई थी। दूसरी लहर से पहले दिसंबर 2020 से जनवरी 2021 के बीच हुए ऐसे ही एक सर्वे में 21 फीसदी लोगों में कोरोना रोधी एंटीबॉडी पैदा होने के संकेत मिले थे।

शहरों और गांवों के बीच में ज्यादा अंतर नहीं
चेन्नई स्थित राष्ट्रीय विषाणु विज्ञान संस्थान के निदेशक मनोज मुरहेकर कहते हैं, पिछले सर्वे में ज्यादातर शहरी आबादी में ही एंटीबॉडी बनने की बात सामने आई थी। हालांकि, जून-जुलाई के सर्वे में शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में प्रतिरोधक क्षमता हासिल करने वाले लोगों की संख्या में कुछ खास अंतर नहीं दिखा। इससे स्पष्ट है कि सार्स-कोव-2 वायरस गांवों में भी जड़ें जमा चुका है। यही कारण है कि दूसरी लहर के दौरान शहरों के साथ-साथ गांवों में भी कोरोना ने बड़े पैमाने पर जानें ली थीं।

बच्चों के जीवन को लेकर ज्यादा फिक्रमंद विशेषज्ञ
इजकमन-ऑक्सफोर्ड क्लीनिकल रिसर्च यूनिट से जुड़े हेनरी सुरेंद्र के मुताबिक गांवों में डेल्टा की दस्तक बच्चों के जीवन के लिए ज्यादा खतरनाक है। बीते साल हुए एक अध्ययन में पाया गया कि जकार्ता के ग्रामीण इलाकों में कोविड-19 के चलते भर्ती होने वाले दस फीसदी बच्चे जिंदगी की जंग नहीं जीत पाए। चूंकि, मलेरिया-टीबी जैसी बीमारियों और कुपोषण के कारण बड़ी संख्या में ग्रामीण बच्चे पहले से ही काफी कमजोर होते हैं, ऐसे में डेल्टा जैसे वेरिएंट उन पर ज्यादा कहर बरपा सकते हैं।