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तालिबान ने भारत के सपनों पर ऐसे फेरा पानी, मामूली खर्चे में भी चीन ने मार ली बाजी

अफगानिस्तान पर तालिबान के इतनी तेजी से कब्जे को लेकर हर देश हैरान है। खासतौर पर वे देश जिन्होंने अफगान में सालों से निवेश किया। अफगानिस्तान में भारी-भरकम निवेश करने वाले देशों में से एक भारत भी है, जिसने यहां शांति को बढ़ावा देने के लिए कई विकास परियोजनाएं शुरू कीं। हालांकि, अब तालिबानी कब्जे के बाद यह विचार करने वाली बात है कि बीते दो दशकों में किए इस निवेश से भारत के हाथ क्या लगा है।  साल 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अफगानिस्तान के नए संसद भवन का उद्घाटन किया था। यह संसद भवन भारत ने 9 करोड़ डॉलर यानी आज की तारीख में करीब 660 करोड़ रुपये से ज्यादा की लागत से बनवाया था।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस संसद भवन को अफगानिस्तान में लोकतंत्र के प्रति समर्पित किया था। इसके बाद अफगान के 19वीं सदी में बने स्टोर पैलेस की मरम्मत के बाद उसका पर्दार्पण भी पीएम मोदी ने ही किया था। यह महल 1920 के दशक में अफगान के किंग अमनुल्ला का आवास हुआ करता था। साल 2016 में पीएम मोदी ने अफगानिस्तान के सलमा डैम का उद्घाटन किया। अन्य राज्यमार्ग और इमारतों से जुड़ी परियोजनाओं को भी जोड़ लिया जाए तो भारत ने कुल 3 अरब डॉलर अफगानिस्तान में निवेश किए हैं। इतना ही नहीं, अफगानिस्तान को आर्थिक मदद देने वाले सबसे बड़े क्षेत्रीय सहयोगियों में से एक है। 

मोदी सरकार की ‘नेबरहुड फर्स्ट’ पॉलिसी का एक बड़ा लक्ष्य क्षेत्र में शांति और ऐसे द्विपक्षीय रिश्ते बनाए रखना है, जो दोनों के लिए लाभकारी हों। भारत सरकार ने भूटान से लेकर नेपाल तक में विदेश मंत्रालय और अन्य विभागों के जरिए अरबों रुपये का निवेश किया हुआ है। ठीक, अफगानिस्तान में भी भारत के निवेश का सबसे बड़ा मकसद यही था कि वहां तालिबान का कब्जा न हो और देश पाकिस्तान के हाथों की कठपुतली न बने। हालांकि, अब ऐसा हो गया है। भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती कश्मीर में शांति बनाए रखना है। सुरक्षा एजेंसियां लगातार तालिबानी कब्जे के बाद कश्मीर पर नजर रखे हुए है। ऐसी आशंका है कि पाकिस्तान तालिबान के लड़ाकों के जरिए जम्म-कश्मीर में अशांति फैलाने की कोशिश कर रहा है। 

अफगानिस्तान में अरबों रुपये के निवेश के बावजूद भारत इस स्थिति में नहीं है कि वह उस देश में कूटनीतिक फैसले लेने में शामिल हो। तालिबान के राज के बाद अब अफगानिस्तान दक्षिण और मध्य एशिया के लिए पहले से भी बड़ा खतरा बन सकता है, लेकिन फिलहार भारत के पास ऐसा होने से रोकने के लिए भी कोई विकल्प नहीं है। बीते गुरुवार विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कहा कि भारत ने सिर्फ अफगानिस्तान के साथ दोस्ती में निवेश किया और उसे इसका फल मिलेगा। उन्होंने यह भी कहा कि अभी के लिए भारत अफगानिस्तान को लेकर भारत का रुख ‘वेट एंड वॉच’ वाला होगा। 

लेकिन अगर भारत कोई ठोस निर्णय नहीं लेता है तो अफगानिस्तान में उसकी मौजूदगी कमजोर पड़ सकता है। इतना ही नहीं निवेश के अलावा भारत को बड़े प्रोजेक्ट्स मिलने में भी कठिनाई हो सकती है। इनमें से एक 11 अरब डॉलर का हाजीगक माइन प्रोजेक्ट भी है। साथ ही ईरान में चाहबार पोर्ट प्रोजेक्ट पर भी इसका असर पड़ सकता है। दरअसल, इस पोर्ट के जरिए पाकिस्तान के रास्ते जाए बिना ही अफगानिस्तान को मध्य एशिया से जोड़ा जा सकता है। पहले से ही इस परियोजना पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं और अब तालिबान राज ने इसके लिए रास्ता और मुश्किल कर  दिया है। 

चीन न मार ले बाजी
अफगानिस्तान में मामूली निवेश के बावजूद फिलहाल चीन वहां मजबूत स्थिति में है। अफगानिस्तान के माइनिंग प्रोजेक्ट्स भी चीन को मिलने की चर्चाएं हैं। हालांकि, चीन की इस सफलता का एक बड़ा कारण तालिबान के साथ उसकी रणनीतिक चर्चाएं हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि अब दुनिया में इस बात की चर्चा है कि कैसे तालिबान के आने से चीन को फायदा होगा। वहीं, भारत के लिए इसे चुनौती समझा जा रहा है।