भारत में वर्कफोर्स में बढ़ी ज्यादातर महिलाएं “अनपेड फैमिली वर्कर” (अवैतनिक पारिवारिक कर्मचारी) के तौर पर काम कर रही हैं. यानी इन महिलाओं को काम के बदले वेतन नहीं मिलताकानपुर के विशू भाटिया, होटल सेक्टर में काम करते थे. पिछले साल कोरोना लॉकडाउन में उनकी नौकरी गई तो घर चलाने के लिए उन्होंने दुकान खोली. लेकिन कुछ महीने में लॉकडाउन खुल गया और वे काम पर लौट आए, अब उनकी गिफ्ट और कॉस्मेटिक्स की दुकान चलाने का जिम्मा उनकी पत्नी पर आ गया. इसी तरह कई महिलाओं ने कोरोना के दौरान परिवार को आर्थिक सहारा देने के लिए काम करना शुरू किया. सरकारी आंकड़े भी स्पष्ट करते हैं कि साल 2019-20 में भारत के कुल वर्कफोर्स में महिलाओं की संख्या बढ़ी है. केंद्रीय श्रम मंत्रालय ने वर्कफोर्स में महिलाओं की बढ़ी भागीदारी को एक सकारात्मक संकेत बताया है लेकिन जानकार इसे लेकर सशंकित हैं. वे कहते हैं कि जुलाई 2019 से जून 2020 के हालिया पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे (PLFS) में वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी में बढ़ोतरी अच्छी मानी जा सकती थी अगर इसमें एक पेच न होता. काम के लिए वेतन नहीं मिल रहा यह पेच है कि वर्कफोर्स में बढ़ी ज्यादातर महिलाएं ‘अनपेड फैमिली वर्कर’ (अवैतनिक पारिवारिक कर्मचारी) के तौर पर काम कर रही हैं. यानी इन महिलाओं को काम के बदले वेतन नहीं मिलता. वे जिस दुकान, फैक्ट्री या खेत में काम कर रही होती हैं, उसका मुखिया भी उन्हीं के घर का कोई पुरुष सदस्य होता है. और परिवार का सदस्य होने के नाते उनके श्रम के बदले उन्हें सिर्फ घर में रहने और खाने की सुविधा मिल पाती है, कोई अतिरिक्त वेतन नहीं.ब्रिटेन की बाथ यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर डेवलपमेंट में विजिटिंग प्रोफेसर संतोष मल्होत्रा कहते हैं, “एक बार जब महिलाएं वेतन न पाने वाला पारिवारिक श्रम करने लगती हैं तो वे घर से बाहर निकलकर नौकरियां नहीं कर पातीं. यह घरेलू काम-काज ज्यादातर खेतों, छोटे बिजनस और दुकानों में होता है. लेकिन इसमें कितनी ऐसी महिलाएं होंगी, इसे एक आंकड़े से समझिए कि भारत के 84 फीसदी छोटे और मझोले उद्योग ऐसे ही बिजनस हैं” फिर भी कामकाजी महिलाएं बढ़ीं साल 2019-20 के डेटा के मुताबिक भारत में काम करने योग्य जनसंख्या के मुकाबले वाकई काम करने वाले लोगों का प्रतिशत यानी लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेश्यो (LFPR) साल 2017-18 से 2019-20 के बीच बढ़ा है. लेकिन यह आंकड़ा कई लोगों के दिमाग में इसलिए खटक रहा है क्योंकि इस दौरान भारत की अर्थव्यवस्था सुस्ती की ओर जा रही थी. सुस्त अर्थव्यवस्था में काम करने वाले कैसे बढ़े, यह रहस्यमयी बात थी. अर्थशास्त्रियों ने इस रहस्य को खोला. उनके मुताबिक सुस्त होती अर्थव्यवस्था में वेतन नहीं बढ़ रहा था और नौकरियों का संकट भी गंभीर हो रहा था. वहीं कोरोना के दौरान जब नौकरियों और वेतन में कटौती शुरू हुई तो घरों पर दबाव बढ़ा. इस दौरान के आंकड़े यह भी दिखाते हैं कि 2019-20 में नौकरियों में पुरुषों का हिस्सा लगभग उतना ही रहा लेकिन वो महिलाएं थीं, जो इस दौरान काम खोजने निकलीं जिससे वर्कफोर्स में उनका हिस्सा बढ़ा. नौकरियां मिली नहीं, गईं अर्थशास्त्री कहते हैं, लड़कियां अलग-अलग स्तरों पर तेजी से शिक्षित हो रही हैं. 2010-2015 के बीच सेंकेंड्री स्तर (कक्षा 9-10) में उनका इनरोलमेंट 58 फीसदी से बढ़कर 85 फीसदी हो गया है. कई राज्य लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए स्कॉलरशिप, लैपटॉप और साइकिल आदि देकर उन्हें पढ़ाई के लिए प्रोत्साहित भी कर हैं.ऐसे में इन लड़कियों के पास शहरों में नौकरियां पाने के अवसर बढ़ रहे हैं. तस्वीरेंः क्या है वर्जिनिटी टेस्ट की वजह इससे लगता है कि शिक्षा के चलते महिलाओं का हिस्सा वर्कफोर्स में सामान्य रूप से बढ़ रहा है. आखिर महिलाओं की शिक्षा का स्तर बढ़ने पर ऐसा होना सामान्य है. लेकिन अर्थव्यवस्था की सुस्ती के बीच यह ट्रेंड शक पैदा करता है. और सेवा क्षेत्र में सीमित नौकरियां आने से यह तर्क और कमजोर हो जाता है क्योंकि भारत में ज्यादातर पढ़ी-लिखी महिलाएं शहरी इलाकों में सेवा क्षेत्र में ही नौकरियां पाती रही हैं. यह शक इसलिए और मजबूत हो जाता है क्योंकि सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकॉनमी (CMIE) के मुताबिक साल 2019-20 में कोरोना के चलते आर्थिक संकट आने पर पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की नौकरियां ज्यादा गईं. नौकरियों की हिस्सेदारी का हालिया सर्वे भी दिखाता है कि आम नौकरियों में 2019-20 में कमी आई है. जिससे यह साफ हो जाता है कि रोज कमाई वाले रोजगार में बढ़ोतरी हुई है और लोगों ने स्वरोजगार और अनौपचारिक वेतन वाले कामों को चुना. संकटकाल रहा इसकी वजह महिलाओं को भी कोरोना से उपजे इस संकट के समय अवैतनिक कामों में लगना पड़ा. अर्थशास्त्री भी यह बात मानते हैं क्योंकि इस दौरान एक और क्षेत्र जिसमें वर्कफोर्स बढ़ा, वो खेती है. पिछले साल कृषि क्षेत्र में काम करने वालों की संख्या बढ़ी है, जबकि पिछले दो दशकों से यह लगातार कम हो रही थी. जानकार इसके लिए शहरों से गांव लौटे प्रवासियों को जिम्मेदार बताते हैं.