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यूपी का रण : सोशल इंजीनियरिंग ने दी स्थिर सरकार, मायावती पहली सीएम बनीं जिन्होंने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया

तमाम उठापटक और सियासी प्रयोगों के बीच साल 2007 का विधानसभा चुनाव आ पहुंचा। कुछ महीने पहले 9 अक्तूबर 2006 को बसपा के संस्थापक और मायावती के राजनीतिक गुरु कांशीराम की मृत्यु हो चुकी थी। कांशीराम के घर वालों ने उनकी मौत के लिए मायावती को जिम्मेदार ठहराया था। उन्होंने मायावती पर कांशीराम से नहीं मिलने देने का आरोप भी लगाया था। बहरहाल मायावती अब पूरी तरह बसपा की सर्वेसर्वा थीं। तीन बार थोड़े-थोड़े समय तक मुख्यमंत्री रह चुकीं मायावती भी शायद अब तक प्रदेश की सियासी चाल और  चुनावी जीत के गणित को काफी हद तक समझ चुकी थीं। उन्होंने कांशीराम के दलितों और अल्पसंख्यकों के गठजोड़ से राजनीतिक ताकत हासिल करने के फॉर्मूले को बदलते हुए सर्वसमाज का नारा दिया। 
 
ब्राह्मणवाद पर हमला करने वाली मायावती ने बड़ी संख्या में ब्राह्मणों को टिकट दिए। मायावती की यह नई सोशल इंजीनियरिंग रंग लाई। माया ने कांशीराम का फॉर्मूला बदल दिया, लेकिन बसपा को अपने दम पर सत्ता में लाने का सपना तो पूरा कर दिया। लगभग 22 साल की उम्र पूरी कर रही बसपा ने 206 सीटें जीतीं। प्रदेश में 1991 के बाद यानी 16 वर्षों बाद मायावती के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत की सरकार बनी।

मायावती ने 13 मई 2007 को  प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर सत्ता संभाली। इसके साथ ही राजनीतिक अस्थिरता और जोड़-तोड़ से सरकार बनाने का दौर खत्म हुआ। पहली बार किसी मुख्यमंत्री ने अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। इस चुनाव ने प्रदेश को स्थिर सरकार तो दी, पर मनरेगा, एनआरएचएम और स्मारक निर्माण के साथ कई अन्य योजनाओं में घोटाले के आरोप लगे। चीनी मिलें बेचने, किसानों की जमीन जेपी सहित अन्य उद्योगपतियों को देने, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 48 जिलों को एक जोन बनाकर वहां शराब बिक्री के सारे फैसले व नीति को एक बड़े शराब कारोबारी को सौंपने के आरोपों ने मायावती की पूर्ण बहुमत वाली सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया। रही-सही कसर पूरी कर दी बसपा नेताओं पर दुष्कर्म, आय से अधिक संपत्ति बनाने, ऐतिहासिक महत्व के कई भवनों को तोड़कर उनकी जगह स्मारक बनवाने के नाम पर घोटाला करने के आरोपों ने।

नए विकल्प की तलाश में बनी बसपा की सरकार
पहले बसपा और फिर सपा का साथ देने वाली भाजपा पूरी तरह बेहाल थी। कलराज मिश्र ने प्रदेश अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देते वक्त पार्टी की हार के लिए गुटबाजी और नेताओं के खींचतान को जिम्मेदार ठहराया था, फिर भी भाजपा के नेता अपनी-अपनी राह चलते दिख रहे थे। 2004 के लोकसभा चुनाव में बड़ी हार ने कार्यकर्ताओं को और ज्यादा मनोवैज्ञानिक रूप से तोड़ दिया था। पार्टी के कई विधायक व पुराने नेता दल बदल चुके थे। राजनीतिक विश्लेषक प्रो. एपी तिवारी कहते हैं, भाजपा की गुटबाजी और बेजारी, सत्तारूढ़ दल सपा के दामन पर अनाज घोटाले के साथ तुष्टीकरण और अयोध्या में आतंकियों के हमले के मामले में ढिलाई के आरोपों ने प्रदेश के लोगों को संभवतया बसपा के रूप में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने के प्रयोग की राह दिखाई। कांशीराम ने जिस बसपा को राजनीति से ब्राह्मणवाद मिटाने के नारे और दलितों को सत्ता का नेतृत्व सौंपने के संकल्प के साथ गठित किया था, उसने सत्ता हासिल करने के लिए ब्राह्मणों को लुभाने की जी तोड़ कोशिश की।

टिकटों से भी साधे समीकरण
बसपा ने टिकटों में जिस तरह अगड़ी जातियों को तवज्जो दी उसका भी उसे लाभ हुआ। इसका एक उदाहरण बसपा की तरफ से 2007 में मैदान में उतारे गए 86 ब्राह्मण प्रत्याशी थे। इसमें तीन दर्जन से ज्यादा जीते। बसपा ने 139 सीटों पर सवर्णों को प्रत्याशी बनाया था। इनमें 36 ठाकुर और अगड़ों में अलग-अलग जातियों के 17 अन्य उम्मीदवार थे। इसके अलावा पिछड़ों को 114, मुस्लिमों को 61 और दलितों को 89 टिकट दिए गए थे।
 
माया ने नीति और नारे बदल अगड़ों को साथ जोड़ा
थोड़े-थोड़े समय के लिए प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं मायावती शायद समझ चुकी थीं कि मिशन के लिहाज से तो दलितों व अल्पसंख्यकों को सत्ता सौंपने का सपना ठीक है, लेकिन पिछड़ों व अगड़ों को साथ लिए बिना यह सपना हकीकत नहीं बन सकता। उन्होंने भाजपा नेताओं के मुंह से बार-बार निकलने वाले सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूले पर काम शुरू कर दिया। भाजपा सिर्फ बातें ही करती रही और गुटबाजी में उलझी रही। मायावती ने ‘तिलक-तराजू और तलवार-इनको मारो जूते चार’ जैसे नारों को बदलकर ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु, महेश है’ कर दिया। साथ ही ‘चढ़ गुंडों की छाती पर, मुहर लगा दो हाथी पर’ जैसे नारों से मुलायम सरकार की कानून-व्यवस्था को मुद्दा बनाया। वरिष्ठ पत्रकार और बसपा की लंबे समय तक रिपोर्टिंग कर चुकीं रचना सरन बताती हैं, वर्ष 2003 में मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटने के बाद से ही मायावती ने अपने दम पर सरकार बनाने के लिए प्रयास शुरू कर दिए थे। अगड़ी जातियों के बीच बसपा की पकड़ व पैठ बढ़ाने की रणनीति पर काम शुरू हुआ। बसपा में भाईचारा कमेटियां तो पहले से बनी थीं, लेकिन मायावती ने लीक से हटते हुए वरिष्ठ नेता सतीश मिश्र की अगुवाई में पार्टी में पहली बार ‘ब्राह्मण भाईचारा कमेटी’ बनाकर उसके तत्वावधान में ब्राह्मणों के सम्मेलन व छोटी-छोटी बैठकें कीं। इनमें ब्राह्मणों को बड़ी संख्या में बसपा का टिकट और सरकार बनने पर पूरा सम्मान देने का आश्वासन दिया गया। इसका बसपा को लाभ हुआ।

सख्त छवि … अपने ही सांसद को कराया गिरफ्तार
मायावती के 2007 में सत्ता में आने की बड़ी वजह मुलायम सिंह यादव सरकार के खिलाफ खराब कानून-व्यवस्था का मुद्दा भी था। मायावती ने पद संभालने के एक महीने के भीतर कानून-व्यवस्था के मुद्दे पर मछलीशहर से बसपा के तत्कालीन सांसद उमाकांत यादव को गिरफ्तार कराकर कड़ा संदेश भी दिया। उमाकांत यादव और उनके पुत्र पर कुछ लोगों की दुकानें जबरन गिरवा देने और जमीन पर कब्जा करने का आरोप लगा था। इस मामले में रिपोर्ट भी दर्ज थी। पर, उमाकांत फरार हो गए थे। मुख्यमंत्री मायावती ने उमाकांत को मिलने के लिए लखनऊ बुलाया। उमाकांत जैसे ही मुख्यमंत्री के बंगले के बाहर पहुंचे तो मायावती के निर्देश पर पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया।

…लेकिन पूरे कार्यकाल में लगता रहा साख पर बट्टा
सख्त प्रशासक की छवि वाली मायावती के कार्यकाल में सरकार पर लगे भ्रष्टाचार और विधायकों पर दुष्कर्म के आरोपों ने उनकी साख को नुकसान पहुंचाया। एनआरएचएम घोटाले और चीनी मिलों को औने-पौने दामों पर बेचने के आरोपों से वे कभी बाहर नहीं निकल सकीं। 
इंजीनियर की हत्या ने सरकार पर लगाया दाग
मायावती सरकार ठीक-ठाक चल रही थी। बसपा के लोग जनवरी 2009 में आने वाले उनके जन्मदिन की तैयारी कर रहे थे। 2007 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद मायावती के जन्मदिन को धूमधाम से मनाने की परंपरा सी बन गई थी। औरैया में बसपा के तत्कालीन विधायक शेखर तिवारी के डिबियापुर क्षेत्र में तैनात अधिशासी अभियंता मनोज गुप्त की पीट-पीटकर हत्या करने का मामला सुर्खियों में रहा। मनोज गुप्त की पत्नी ने थाने में एफआईआर में शेखर तिवारी पर मायावती के जन्मदिन के लिए चंदा मांगने और न देने पर पीटकर मार डालने का आरोप लगाया। मायावती ने शेखर के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराकर, उनकी गिरफ्तारी कराकर और बसपा से निकालकर डैमेज कंट्रोल की कोशिश की। पर,विपक्ष के तेवरों ने उनकी कोशिशों पर पानी फेर दिया। 

दुष्कर्म के आरोपों में घिरे विधायकों से भी किरकिरी
औरैया कांड से कुछ महीने पहले ही बुलंदशहर के डिबाई से उस समय बसपा से विधायक चुने गए भगवान शर्मा उर्फ गुड्डू पंडित पर एक शोध छात्रा से दुष्कर्म करने के आरोप लगे। मायावती ने गुड्डू को भी तत्काल गिरफ्तार करा दिया था। पर, जब 2010 में बांदा के नरैनी से बसपा के तत्कालीन विधायक पुरुषोत्तम नरेश द्विवेदी पर एक नाबालिग लड़की ने दुष्कर्म करने का आरोप लगाया, तो ये सारे मामले जोड़कर विपक्ष ने सरकार की घेराबंदी शुरू कर दी। बांदा मामले में आरोपी विधायक द्विवेदी ने दुष्कर्म का आरोप लगाने वाली लड़की को मोबाइल चोरी के आरोप में जिस तरह जेल भेजवाया, साथ ही शुरू में सरकार की तरफ से लड़की पर मोबाइल चोरी के आरोप को सही करार दिया गया, उसने सरकार की छवि को नुकसान पहुंचाया। हालांकि, बाद में मायावती ने आदेश देकर उस लड़की को रिहा कराया। विधायक का निष्कासन हुई और गिरफ्तारी भी हुई, लेकिन जो नुकसान होना था वह हो चुका था। 

घोटालों के कलंक 
2010 आते-आते एनआरएचएम व मनरेगा में सामने आए घोटालों ने सरकार की साख पर सवाल उठाए। इन मामलों में मायावती सरकार के  कुछ मंत्री और अधिकारी घिरे। खासतौर से एनआरएचएम घोटाले में उनके नजदीकी बाबूसिंह कुशवाहा। एक के बाद एक घोटाले उजागर होने लगे और एक के बाद एक कई मंत्री घिरते चले गए।  

एनआरएचएम घोटाले में लखनऊ सहित दो मुख्य चिकित्सा अधिकारियों की हत्या और कुछ की संदिग्ध हालात में मौत ने सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया। हालांकि, मायावती ने बाबू सिंह कुशवाहा, अनंत मिश्रा जैसे मंत्रियों को निकालकर, अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराकर 2012 के चुनाव में साफ-सुथरी छवि के साथ उतरने की कोशिश की, पर सफल नहीं हो पाईं।

चीनी मिल बिक्री और स्मारक घोटाले की आंच
घोटालों के अलावा चीनी मिलों को औने-पौने दामों पर बेचने के आरोपों ने भी मायावती सरकार की रीति-नीति पर सवाल खड़े किए। तत्कालीन लोकायुक्त ने भी कई मंत्रियों के खिलाफ लगे आरोपों को सही पाने पर ईडी एवं सीबीआई जांच कराने की सिफारिश की। सीएजी ने मायावती सरकार में बन रहे स्मारकों में स्टोन कटिंग और पॉलिश के नाम पर घोटाला करने की बात कहते हुए सरकार को कठघरे में खड़ा किया। मायावती सरकार में मंत्री रहे राकेश धर त्रिपाठी और रंगनाथ मिश्र सहित अन्य कुछ पर आय से अधिक संपत्ति के आरोप लगे। इन आरोपों ने सपा को बसपा पर हमला करने का और मौका दिया।

भट्टा-पारसौल कांड से किसान हुए खफा
घोटालों व भ्रष्टाचार की तपिश शांत भी नहीं हुई कि भट्टा-पारसौल कांड ने मायावती सरकार की मुसीबत और बढ़ा दी। निर्माणाधीन यमुना एक्सप्रेसवे के किनारे की जमीन के अधिग्रहण का विरोध कर रहे किसानों और वहां के तत्कालीन प्रशासन के बीच खूनी संघर्ष हो गया। पुलिस की गोली से दो किसानों की जान गई और कई घायल हो गए। इस घटना ने राजनीतिक दलों को माया सरकार के खिलाफ बड़ा मुद्दा दे दिया। वरिष्ठ पत्रकार वीरेंद्र भट्ट बताते हैं, मायावती सरकार ने किसानों की हजारों एकड़ भूमि अधिगृहीत कर जेपी समूह को दे दी थी। इसी को लेकर किसान आंदोलित थे। हालांकि, बाद में तत्कालीन कैबिनेट सचिव शशांक शेखर ने एक किसान नेता की मध्यस्थता में प्रभावित किसानों को सालाना मुआवजा पैकेज पर मनाने की कोशिश की। पर, इस मामले ने भी मायावती सरकार पर सवाल खड़े किए।

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