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जहां सहस्त्रबाहु के दर्शनमात्र से मिलता है मोक्ष का वरदान

आज हम उस मंदिर एवं पहाड़ी की बात कर रहे है, जहां दर्शनमात्र से मिल जाता है मोक्ष का वरदान और स्नान से कट जाते है सारे कष्ट। वह जगह है मध्य प्रदेश का ग्वालियर एवं हिमाचल प्रदेश के सोलन व सिरमौर की सीमा पर बसे मरयोग गांव। जी हां ग्वालियर शहर में ऐसे माहाबली व महाप्रतापी योद्धा का मंदिर है, जिसने न सिर्फ रावण को छह माह तक अपने किले में कैद कर रखा, बल्कि अपनी हजार भुजाओं से नर्मदा के पानी को भी रोक लिया था। वह शक्तिशाली योद्धा कोई और नहीं बल्कि त्रेता युग के भगवान सहस्त्रबाहु अर्जुन हैं, जिन्हें कार्तवीर्य अर्जुन के नाम से भी जाना जात है. मान्यता है कि शहस्त्राबाहु मंदिर में विधि-विधान से पूजा-अर्चना करने के बाद मोक्ष का वरदान मिलता है और मरयोग के सहस्त्रधारा में स्नान से सारे पाप व कष्ट सदा-सदा के लिए कट जाते है। बता दें, सहस्त्रधारा वह जलधारा है जहां परशुराम ने सहस्त्राबाहु का बध किया, तो सहस्त्रबाहु के शरीर से हजारों रक्त धाराएं बहने लगी और अपने अंतिम समय पर राजा सहस्त्रबाहु के आग्रह करने पर भगवान परशुराम ने उन्हें कहा था जो तुम्हारी रक्त धाराएं आज यहां बह रही हैं वह कलयुग में हजारों जल धाराओं के रूप मे बहेंगी और जो भी श्रद्धालु यहां स्नान करेंगे उनके सभी कष्ट दूर होंगे।

-सुरेश गांधी

वाल्मीकि रामायण के अनुसार प्राचीन काल में महिष्मती (वर्तमान महेश्वर) नगर के राजा कार्तवीर्य अर्जुन थे। उन्होंने भगवान विष्णु के अवतार दत्तात्रेय को प्रसन्न कर वरदान में उनसे 1 हजार भुजाएं मांग ली। पुराणों धार्मिक ग्रंथों में कार्तवीर्यार्जुन भगवान विष्णु के अंश चक्रा अवतार थे। भगवान कार्तवीर्यार्जुन को कोई युद्ध में नहीं हरा सकता था। इससे उसका नाम सहस्त्रबाहु अर्जुन हो गया। लोग उन्हें उनके पिता कार्तवीर्य के नाम से भी बुलाते थे। आज भी उनके अनुयायी सहस्त्रबाहु, सहस्त्रार्जुन, सहस्त्रार्जुन कार्तवीर्य के रुप में उनकी पूजा-अर्चना करते है। सहस्त्र का अर्थ है एक हज़ार, बाहु का अर्थ है भुजाएं, अर्थात जिसकी एक हज़ार भुजाएं हो। सहस्त्रार्जुन अपने हैहय वर्ष में सबसे प्रतापी राजा थे, इसलिये उन्हें हैहय वंश का प्रमुख अधिपति भी कहा गया। महिष्मति नगरी के प्रमुख राजा होने के कारण उन्हें इस नाम से भी जाना जाता है। दशग्रीवजयी यानी लंका के दस मुख वाले राजा रावण के ऊपर विजय प्राप्त करने के कारण उन्हें इस नाम की उपाधि मिली थी। सप्त द्विपेश्वर यानी सातों दीपों पर राज करने के कारण कार्तवीर्य को इस नाम से भी जाना गया। राज राजेश्वर यानी राजाओं के भी राजा होने के कारण उन्हें इस नाम से भी पहचान मिली। सहस्त्रबाहु की राजधानी महिष्मति नगरी थी जो नर्मदा नदी के तट पर बसी थी। वर्तमान में यह स्थान मध्य प्रदेश के नर्मदा नदी के पास महेश्वर नगर हैं जहां सहस्त्रबाहु को समर्पित मंदिर भी स्थित है। मंदिर करीब 1000 साल पुराने हैं। उस समय इस मंदिर का निर्माण कच्छपघात राजवंश के राजा महिपाल ने 11वीं शताब्दी में कराया था। मंदिर का निर्माण उत्तर भारत की नागर शैली में कराया गया है। इसमें सुंदर नक्काशी और कंगूरे और देवताओं की मूर्तियां देखने को मिलती हैं। इस मंदिर का निर्माण 5 भागों में किया गया है। इसमें अर्द्ध मंडप, मंडप, महा मंडप, अंतराल और गर्भगृह हैं। इसमें त्रिदेव की मूर्तियां भी हैं। इनमें प्रभु ब्रह्मा, विष्णु और महेश शामिल है। दरवाजे दोनों तरफ दो द्वारपाल की भी मूर्तियां बनाई गई हैं। इनको जय और विजय कहा जाता है। यह ऐसा मंदिर है, जहां गंगा और यमुना की भी मूर्तियां भी बनी हुई हैं। मंदिर में सहस्त्रबाहु के जीर्ण-शीर्ण अवस्था का फोटो भी है, जो 1881 केे पहले का है।

इस मंदिर की महत्ता का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि सदी के महानायक अमिताभ बच्चन भी इसका जिक्र कर चुके हैं। कहते है महाराजा महिपाल जी की पत्नी भगवान विष्णु जी की परम भक्त थी, इसलिए राजा ने भगवन विष्णु जी के सम्मान में मंदिर का निर्माण करवाया। वक्त बीतने के साथ-साथ जब महाराजा महिपाल जी का पुत्र विवाह योग्य हुआ। तब राजा जी राकुमार के विवाह के लिए योग्य वधु की तलाश में लग गये और जल्द ही राजकुमार का विवाह हो गया। भावी राजकुमार की पत्नी शिव जी की भक्त थी इसलिए उन्होंने विष्णु मंदिर के पास ही में शिव जी का मंदिर भी निर्मित करवाया। चूकि इन मंदिरो को सास और बहु के द्वारा बनाया गया था इसलिए इसका नाम सास-बहु मंदिर पड़ा। मंदिर में त्रिमूर्ति ( ब्रह्मा, विष्णु और महेश ) की छवियां एक मंच पर खुदी हुई है। जबकि दूसरे मंच पर राम, बलराम और परशुराम के चित्र लगे हुए हैं। इतिहासकर बताते हैं कि मेवाड़ राजघराने की राजमाता ने मंदिर भगवान विष्णु को और बहू ने शेषनाग को समर्पित कराया था। इस मंदिर में भगवान विष्णु की 32 मीटर ऊंची और 22 मीटर चौड़ी प्रतिमा थी। लेकिन आज के समय में इस मंदिर में भगवान की एक भी प्रतिमा नहीं है। अर्थात इस मंदिर परिसर में भगवान की एक भी प्रतिमा नहीं है। इस मंदिर में सबसे पहले भगवान विष्णु की स्थापना की गई थी। जिससे इस मंदिर का नाम सहस्त्रबाहु पड़ा। मंदिर की दिवारों को रामायण काल की अनेक घटनाओं से सजाया गया है।

सहस्त्रधारा
हिमाचल के सोलन व सिरमौर की सीमा पर बसे मरयोग गांव में पहाड़ों से सहस्त्र धारा बहती है. पौराणिक मान्यता है कि जब भगवान परशुराम ने राजा सहस्त्रबाहु का वध किया था तो सहस्त्रबाहु के शरीर से हजारों रक्त धाराएं यहां बहने लगी थीं। अपने अंतिम समय पर राजा सहस्त्रबाहु के आग्रह पर भगवान परशुराम ने उन्हें कहा था जो तुम्हारी रक्त धाराएं यहां बह रही हैं, वह कलयुग में हजारों जल धाराओं के रूप मे बहेंगी। जो भी श्रद्धालु यहां स्नान करेंगे उनके सभी कष्ट दूर होंगे. तब से लेकर आज तक यही मान्यता है. आज तक सहस्त्र धाराएं ऐसे ही बह रही हैं। इसका जिक्र स्वयं परशुराम जी ने माता सीता के स्वयंवर के समय में भगवान राम द्वारा टूटी धनुष के प्रसंग में लक्ष्मण जी से संवाद करते हुए कहा कि सहस्त्रबाहु भुज छेदन हारा, परसु बिलोकु महीप कुमारा। इसका वर्णन तुलसीकृत रामायण के बालकांड के 244 व 245 पर भगवान श्रीराम, लक्ष्मण परशुराम संवाद में पढ़ा-देखा जा सकता है। परशुराम जी ने भुजाओं का छेदन करने की बात कही है। माघ व सावन के महीने में यहां श्रद्धालुओं की खासी भीड़ जुटती है. जिस स्थान पर ये धाराएं निकल रही हैं वहीं सूर्य मुखी नदी भी है जो पूर्व की ओर बह रही है. कुछ ही दूरी पर भगवान शिव का प्राचीन मंदिर भी है जो लोगों की आस्था का केंद्र है. इस मंदिर मे सैंकड़ों वर्ष पुरानी मूर्तियां मौजूद हैं.

माना जाता है कि जब भगवान परशुराम ने राजा सहस्त्रबाहु का वध किया था तो उनका सिर इस स्थान पर पड़ा था और स्वयं भगवान शिव ने प्रकट होकर सहस्त्रबाहु को मोक्ष दिलाई थी. सावन में यहां बड़ी तादाद में श्रद्धालु स्नान करने आते हैं और यहां आकर अपने जीवन के कष्ट दूर करने के साथ अपनी मनोकामनाएं भी पूरी करते हैं. बह्म वैवर्त पुराण के अनुसार युद्ध में सहस्त्रार्जुन ने अनेकों बार परशुराम को मूर्छित किया था। सहस्त्रार्जुन के हाथ में सुरक्षा कवच था जिसके कारण सहस्त्रार्जुन को हराना असंभव था। देवताओं द्वारा ब्राह्मण का रूप धारण करके सुरक्षा कवच दान में मांग लिया था। वायु पुराण का अप्रकाशित खंड महिष्मति महात्म के अध्याय नंबर 13 में वर्णित है। जब सहस्त्रार्जुन के 4 भुजा से थे तो अपने गुरु दत्तात्रेय का स्मरण किया तो भगवान दत्तात्रेय ने सहस्त्रबाहु को स्मरण कराते हुए कहा कि अंश चक्रा अवतार का स्मरण करो। इतना कहते ही भगवान शंकर तुरंत प्रकट हो गये। सहस्त्रबाहु को दर्शन देते हुए बोले- जाओ नर्मदा नदी में स्नान करके आओ। जब सहस्त्रबाहु नर्मदा नदी से स्नान करके भगवान शंकर के सम्मुख आए तो भगवान शंकर ने उन्हें अपने में समाहित कर लिया। उसी स्थान पर आज राज राजेश्वर भगवान सहस्त्रार्जुन का मंदिर का निर्माण हुआ है।

पौराणिक मान्यताएं
पौराणिक कथा के अनुसार त्रेता युग में सहस्त्रबाहु अर्जुन नाम के एक प्रतापी राजा हुए. जिन्हें कार्तवीर्य अर्जुन के नाम से भी जाना जाता है. सहस्त्रबाहु अर्जुन को रावण से भी अधिक बलशाली माना जाता है. कार्तवीर्य अर्जुन के पिता का नाम कार्तवीर्य था. ये भी प्रतापी राजा थे. उनकी कई रानियां भी लेकिन किसी को कोई संतान नहीं थी. राजा और उनकी रानियों ने पुत्र रत्न प्राप्ति के लिए घोर तपस्या की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली. तब उनकी एक रानी ने देवी अनुसूया से इसका उपाय पूछा. तब देवी अनुसूया में उन्हें अधिक मास में शुक्ल पक्ष में पड़ने वाली एकादशी को उपवास रखने और भगवान विष्णु की पूजा करने के लिए कहा. विधि पूर्वक एकादशी का व्रत करने के कारण भगवान प्रसन्न हुआ और वर मांगने के लिए कहा तब राजा और रानी ने कहा कि प्रभु उन्हेें ऐसा पुत्र प्रदान करें जो सर्वगुण सम्पन्न और सभी लोकों में आदरणीय तथा किसी से पराजित न हो. भगवान ने राजा से कहा कि ऐसा ही होगा. कुछ माह के बाद रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया, इस पुत्र का नाम कार्तवीर्य अर्जुन रखा गया जो सहस्त्रबाहु के नाम से भी जाना गया. पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक राजा सहस्त्रबाहु ने संकल्प लेकर शिव तपस्या प्रारंभ कीं थी। इस घोर तप के समय में वो प्रति दिन अपनी एक भुजा काटकर भगवान शिव जी को अर्पण करते थे। इस तपस्या के फलस्वरूप भगवान निलकंठ ने सहस्त्रबाहु को अनेको दिव्य चमत्कारिक और शक्तिशाली वरदान दिए थे। हरिवंश पुराण के अनुसार महर्षि वैशम्पायन ने राजा भारत को उनके पूर्वजों का वंश वृत्त बताते हुए कहा कि राजा ययाति का एक अत्यंत तेजस्वी और बलशाली पुत्र हुआ था। “यदु“ के पांच पुत्र हुए जो 1-सहस्त्रदः, 2-पयोद, 3-क्रोस्टा, 4-नील और 5-अंजिक। इनमें से प्रथम पुत्र सहस्त्रद के परम धार्मिक 3 पुत्र हुये तथा वेनुहय नाम के हुए थे। महेश्वर नगर मध्यप्रदेश के खरगोन जिले में नर्मदा के किनारे स्थित हैं। राजा सहस्त्रर्जुन या सहस्त्रबाहु जिन्होंने राजा रावण को पराजित कर उसका मान मर्दन कर दिया था। उन्होंने महेश्वर नगर की स्थापना कर इसे अपनी राजधानी शोषित किया था। यही प्राचीन नगर महेश्वर आज भी मध्यप्रदेश में शिव नगरी के नाम से भी जाना जाता हैं।

सहस्त्राबाहु के वंशज है कलार
कलार शब्द का शव्दिक अर्थ है मृत्यु का शत्रु या काल का भी काल अर्थात कलार वंशीयो को बाद में काल का काल की उपाधि दीं जाने लगी, जो शब्दिक रूप में बिगड़ते हुए काल का काल से कल्लाल हुई और फिर कलाल और अब कलार हो गई। ज्ञातव्य है की भगवान शिव के कालातंक या मृत्युजय स्वरूप को बाद में अपभ्रश रूप में कलाल कहा जाने लगा। भगवान शिव के इसी चालातंक स्वरूप का अपभ्रश शब्द ही है। कलवार, कलाल या कलार जैसे भगवान शंकर के नाम के पवित्र शब्द के शराब के व्यापारी के अर्थो या सामानार्थी शब्द के रूप में प्रयोग कलार समाज के शराब के व्यवसाय के कारण उपयोग किया जाने लगा जो की अनुचित है। भगवान सहस्त्रबाहु के वंशज पुरातन या मध्यकालीन युग में कलचुरी इस देश के कई स्थानों के शासक रहे हैं। उन्होंने बड़ी ही बुद्धिमत्ता व वीरता से न्याय प्रिय ढंग से शासन किया।

सहस्त्रबाहुजी के विचारों एवं उनके पराक्रम को आगे बढ़ा रहे मनोज जायसवाल
वर्तमान में सहस्त्रबाहुजी महराज के विचारों एवं उनके पराक्रम को आगे बढ़ाने के लिए वाराणसी के मनोज जायसवाल ने बीड़ा उठाया है। वे चक्रवर्ती सम्राट भगवान सहस्त्रबाहु जी महराज के वंशज के रुप में जाना जाने वाले कलार, जायसवाल, कलवार, समेत अन्य संबंधित उपजातियों को एकजुट करने का संकल्प लिया है। श्री मनोज जायसवाल वाराणसी में जायसवाल क्लब की स्थापना की है। इसके बैनरतले वे शादी-विवाह से लेकर अन्य कार्यक्रमों के जरिए समाज को एकजुट करने में पूरी लगन एवंत न्यमता से जुटे है। उनके मेहनत व लगन का परिणाम है कि अब देशभर में एक विशाल संगठन खड़ा हो गया है।

अखंड ज्योति
राजराजेश्वर मंदिर में युगों-युगों से देसी घी के ग्यारह नंदा दीपक अखण्ड रूप से प्रज्वलित हैं। सहस्त्रबाहु कर्तावीर अर्जुन की जयंती महेश्वर में एक बड़ा त्योहार है। यह अगहन माह की शुक्ल सप्तमी को मनाया जाता है। यह उत्सव तीन दिनों तक जारी रहता है और सभी के लिए एक बड़े भंडारा के साथ समाप्त होता है। राजराजेश्वर मंदिर के बीच में शिवलिंग के रूप में राजराजेश्वर सहस्त्रार्जुन की समाधी है। आज भी उनकी समाधी स्थल में उनकी देवतुल्य पूजा होती है। उन्ही के जन्म कथा के महात्म्य के सम्बन्ध में मतस्य पुराण के 43 वें अध्याय के श्रलोक 52 की पंक्तियां द्रष्टव्य हैं।
यस्तस्य कीर्तेनाम कल्यमुत्थाय मानवः।
न तस्य वित्तनाराः स्यन्नाष्ट च लभते पुनः।।
कार्तवीर्यस्य यो जन्म कथयेदित धीमतः।
यथावत स्विष्टपूतात्मा स्वर्गलोके महितये।।
अर्थात जो प्राणी सुबह-सुबह उठकर श्री कार्तवीर्य सह्स्त्राबहुअर्जुन का स्मरण करता है उसके धन का कभी नाश नहीं होता है। यदि कभी नष्ट हो भी जाय तो पुनः प्राप्त हो जाता है। जो लोग उनके जीवन की महिमा का गुणगान करते व सुनाते है उनकी जीवन और आत्मा यथार्थ रूप से पवित्र हो जाति है। उन्हें मोक्ष का वरदान मिल जाता है।

सहस्त्रबाहु ने जब रावण को बना लिया बंदी
एक कथा के अनुसार लंकापति रावण को जब सहस्त्रबाहु अर्जुन की वीरता के बारे में पता चला तो वह सहस्त्रबाहु अर्जुन को हराने के लिए उनके नगर आ पहुंचा. यहां पहुंचकर रावण ने नर्मदा नदी के किनारे भगवान शिव को प्रसन्न करने और वरदान मांगने के लिए तपस्या आरंभ कर दी. थोड़ी दूर पर सहस्त्रबाहु अर्जुन अपने पत्नियों के साथ नर्मदा नदी में स्नान करने के लिए आ गए, वे वहां जलक्रीड़ा करने लगे और अपनी हजार भुजाओं से नर्मदा का प्रवाह रोक दिया. प्रवाह रोक देने से नदी का जल किनारों से बहने लगा. जिस कारण रावण की तपस्या में विघ्न पड़ गया. इससे रावण को क्रोध आ गया और उसने सहस्त्रबाहु अर्जुन युद्ध आरंभ कर दिया. नर्मदा तट पर रावण और सहस्त्रबाहु अर्जुन में भयंकर युद्ध हुआ। सहस्त्रबाहु अर्जुन ने रावण को युद्ध में बुरी तरह से परास्त कर दिया और बंदी बना लिया. आखिर में सहस्त्रबाहु ने रावण को कैद कर लिया। रावण के दादा पुलस्त्य ऋषि सहस्त्रबाहु के पास आए और पोते को वापस मांगा। महाराज सहस्त्रबाहु ने ऋषि के सम्मान में उनकी बात मानते हुए रावण पर विजय पाने के बाद भी उसे मुक्त कर दिया और उससे दोस्ती कर ली। कहते है बंदी बनाने के बाद सहस्त्रबाहु ने रावण को महेश्वर किले में रखा। यह किला इंदौर शहर से करीब 100 किमी दूर है। यह नर्मदा नदी के तट पर बना हुआ है। महेश्वर के घाट पर हजारों छोटे-बड़े मंदिर हैंं। महेश्वर खूबसूरती के लिहाज से काफी लोकप्रिय है। यहां देश-विदेश से भी टूरिस्ट आते हैं। रानी देवी अहिल्या के शासनकाल से ही महेश्वर की साडिय़ां पूरे विश्व में आज भी प्रसिद्ध है। रामायण और महाभारत में महेश्वर को महिष्मती के नाम से संबोधित किया है। देवी अहिल्याबाई के समय बनाए सुंदर घाटों का प्रतिबिम्ब नदी में दिखता है।

संसार के कल्याण के लिए अनेकों गाथाएं
भगवान सहस्त्रबाहु अर्जुन की संसार के कल्याण के लिए अनेकों गाथाएं वर्णित हैं। ग्रंथों एवं पुराणों के अनुसार कार्तवीर्य अर्जुन के व्याधिपति, सहस्रार्जुन, दषग्रीविजयी, सुदशेन, चक्रावतार, सप्तद्रवीपाधि, कृतवीर्यनंदन, राजेश्वर आदि कई नाम होने का वर्णन मिलता है। सहस्रार्जुन जयंती क्षत्रिय धर्म की रक्षा एवं सामाजिक उत्थान के लिए मनाई जाती है। पुराणों के अनुसार प्रतिवर्ष सहस्त्रबाहु जयंती कार्तिक शुक्ल सप्तमी को दीपावली के ठीक बाद मनाई जाती है। भगवान सहस्त्रबाहु को वैसे तो सम्पूर्ण सनातनी हिन्दू समाज अपना आराध्य और पूज्य मानकर इनकी जयंती पर इनका पूजन अर्चन करता हैं किन्तु ये कलार समाज इस दिन को विशेष रूप से उत्सव-पर्व के रूप में मनाकर भगवान सहस्त्रबाहु की आराधना करता हैं। उनका जन्म नाम एकवीर तथा सहस्रार्जुन भी है। वो भगवान दत्तात्रेय के भक्त थे और दत्तात्रेय की उपासना करने पर उन्हें सहस्र भुजाओं का वरदान मिला था। इसलिए उन्हें सहस्त्रबाहु अर्जुन के नाम से भी जाना जाता है। महाभारत, वेद ग्रंथों तथा कई पुराणों में सहस्त्रबाहु की कई कथाएं पाई जाती हैं।