देशभर में शिवजी के कई तीर्थ स्थान हैं। उनमें से सर्वाधिक महत्वपूर्ण तीर्थ है अमरनाथ गुफा। इसे तीर्थो का तीर्थस्थल कहा जाता है, क्योंकि यहीं पर भगवान शिव ने माता पार्वती को अमरत्व के रहस्य की जानकारी दी थी। इस गुफा में बर्फ के रुप में प्रकट होने वाले भगवान भोलेनाथ के दर्शन के लिए विभिन्न भागों से पहुंचने वाले श्रद्धालुओं को समुद्र तल से साढ़े तेरह हजार फुट की ऊंचाई पर कठिन पहाड़ी रास्तों से गुजरना पड़ता है। यहां तक कि बर्फ से ढकी पहाडियों के बीच कई स्थानों पर सांस लेने के लिए पर्याप्त आक्सीज तक नहीं मिलती, लेकिन महादेव के दर्शनों की अभिलाषा, आस्था और एक विशेष शक्ति लोगों के कदमों को गति देती है और वे हर-हर महादेव के जयघोषों के बीच बर्फीले रास्तों को पार कर अमरनाथ गुफा तक पहुंचते हैं। वहां भगवान शिव के दर्शन कर असीम सुख और कृपा का अहसास करते हैं। कहते है बाबा अमरनाथ दर्शन काशी में लिंग दर्शन और पूजन से दस गुना, प्रयाग से सौ गुना और नैमिषारण्य से हजार गुना पुण्य देने वाले है।
–सुरेश गांधी
तीनों लोकों का स्वर्ग कहा जाने वाला कश्मीर जितना प्राकृतिक कारणों से खूबसूरत है, उतना ही धार्मिक स्थलों की वजह से भी। एक तरफ आदि शक्ति जगत जननी मां वैष्णवी देवी का जहां स्थायी निवास है तो दुसरी तरफ सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा, जगत के पालनहार विष्णु व संपूर्ण जीवों के संरक्षक महादेव की भी तपोभूमि है। यही वजह है कि यहां की हसीन वादियों के पग-पग पर श्रद्धालुओं को पवित्र धामों के दर्शन तो होते ही है, प्रकृति की मनोहारी-अनुपम छटा भी नजर आती है। यहां बड़ी-बड़ी पहाडियां बर्फ से ढंकी रहती हैं, हिमालय की वनस्पतियों के नजारे और झीलें आंखों को सुखद अहसास देते हैं। भगवान भोलेनाथ यानी अमरनाथ की यात्रा को तो श्रद्धालु स्वर्ग के साथ-साथ मोक्ष की भी प्राप्ति मानते हैं। शायद यही वजह भी है कि अमरनाथ गुफा भगवान शिव के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से सबसे प्रमुख है। इसे तीर्थो का तीर्थस्थल कहा जाता है, क्योंकि यहीं पर भगवान शिव ने माता पार्वती को अमरत्व के रहस्य की जानकारी दी थी। यहां की खासियत है कि पवित्र गुफा में बर्फ से प्राकृतिक शिवलिंग का निर्माण। इसे स्वयंभू हिमानी यानी बाबा बर्फानी शिवलिंग भी कहते हैं।
गुफा में शिवलिंग के साथ ही श्रीगणेश, पार्वती और
भैरव के हिमखंड भी निर्मित होते हैं। हर साल आषाढ़ पूर्णिमा से शुरू होकर रक्षाबंधन तक सावन के पूरे माह पवित्र हिमलिंग दर्शन के लिए लाखो श्रद्धालु पहुंचते है। इसकी महत्ता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 5 किमी की लम्बी दुर्गम पैदल यात्रा करने के बाद जब व्यक्ति 14500 फुट की ऊंचाई पर स्थित अमरनाथ गुफा में हिमलिंग के दर्शन करता है तो उसकी सारी थकान पल भर में छू-मंतर हो जाती है। भक्तों को अद्भुत आत्मिक आनंद की अनुभूति होती है। इसीलिए अमरनाथ यात्रा को अमरत्व की यात्रा भी कहा जाता है। जून से अगस्त के बीच अमरनाथ गुफा में शिवलिंग के दर्शन किए जा सकते हैं। सिर्फ इसी समय बाबा अमरनाथ के दर्शन किए जा सकते हैं, शेष समय यहां का वातावरण हमारे लिए प्रतिकूल रहता है। यहां अक्सर बर्फ गिरती रहती है और इस क्षेत्र का तापमान माइनस 5 डिग्री तक पहुंच जाता है। रास्ते का सौंदर्य बयान करना शब्दों से परे है, हां इतना कह सकते हैं कि प्राकृतिक नजारा देखकर हृदय के अंदर आनन्द का संचार होता रहता है। पूरे रास्ते छोटे झरने, जलप्रपात का दृश्य नयनाभिराम लगते हैं। पूरे रास्ते नदी, पहाड़ एवं झरनों का अद्भुत नजारा है।
जो भी हो इतना तो तय है कि अमरनाथ यात्रा भले ही अमरत्व की आकांक्षा लिए हो, लेकिन यह देश को कन्याकुमारी से कश्मीर तक भी जोड़ती है। यात्रा के मार्ग पर हिमानी घाटियां, ऊंचे झरने, बर्फ से लबरेज सरोवर, कुदरत के रचे बर्फीले पुल श्रद्धालुओं की आस्था को रोमांचित कर देते हैं। इस कठिन यात्रा के समापन पर तन-मन एक अनूठी शांति से भर जाता है। तभी तो कुछ इसे स्वर्ग की प्राप्ति का रास्ता बताते हैं तो कुछ मोक्ष प्राप्ति का, लेकिन यह सच है कि अमरनाथ, अमरेश्वर आदि के नामों से विख्यात भगवान शिव के स्वयंभू शिवलिंगम् का दर्शन, जो हिम से प्रत्येक पूर्णमासी को अपने पूर्ण आकार में होता है, दिल को सुकून देने वाला होता है। इतनी लंबी यात्रा तथा अनेक बाधाओं को पार करके अमरनाथ गुफा तक पहुंचना कोई आसान कार्य नहीं है। प्रत्येक यात्री जो गुफा के भीतर हिमलिंगम के दर्शन करता है, अपने आप को धन्य पाता है और खुद को भाग्यशाली समझता है क्योंकि कई तो खड़ी चढ़ाइयों को देख आधे रास्ते से ही वापस मुड़ जाते हैं। वैसे भी जम्मू-कश्मीर को यूं ही देवलोक नहीं कहा जाता है। इसे धरती का देवलोक कहे जाने के पीछे बड़ी वजह यह है कि यहां 45 से अधिक शिवधाम, 60 से अधिक विष्णुधाम, 3 ब्रह्मधाम, 22 शक्तिधाम तथा 700 नागधाम हैं। इन्हीं तीर्थ स्थलों में परम् आस्था का प्रतीक है अमरनाथ की यात्रा, जहां हर श्रद्धालु जीवन में एक बार अवश्य ही जाने को लालायित रहता है। यह पवित्र धाम जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर शहर के उत्तर-पूर्व में 135 किमी दूर समुद्रतल से 13600 फुट की ऊंचाई पर है।
अमरनाथ गुफा की लंबाई (भीतर की ओर गहराई) 19 मीटर, चौड़ाई 16 मीटर व गुफा 11 मीटर ऊंची है। तकरीबन 150 फुट की परिधि में ऊपर से बर्फ के पानी की बूंदें जगह-जगह टपकती रहती हैं। यहीं पर एक ऐसी जगह है, जिसमें टपकने वाली हिम बूंदों से लगभग 10-22 फुट तक लंबा शिवलिंग बनता है। यह शिवलिंग पूरी तरह प्राकृतिक रूप से निश्चित समय के लिए ही बनता है। इस गुफा में एक आश्चर्य की बात यह है कि यहां की बर्फ एकदम कच्ची होती है और हाथ में लेते ही भुर-भुरा जाती है। जबकि, शिवलिंग की बर्फ एकदम ठोस होती है। यहां चारों ओर बर्फीली पहाड़ियां दिखाई देती हैं। चन्द्रमा के घटने-बढ़ने के साथ-साथ इस बर्फ का आकार भी घटता-बढ़ता रहता है। श्रावण पूर्णिमा को यह अपने पूरे आकार में आ जाता है और अमावस्या तक धीरे-धीरे छोटा होता जाता है। यही अद्भूत नजारा भक्तों को बाबा भोलेनाथ की मौजूदगी का एहसास कराती है। लाखों-करोड़ों भक्तों की आस्था को ही ध्यान में रख अमरनाथ की गुफा तक की यह यात्रा हर साल आयोजित की जाती है। कहते है मानसरोवर यात्रा के समान ही इसका भी विशेष महत्व है। मूल अमरनाथ शिवलिंग से कई फुट दूर गणेश, भैरव और पार्वती के वैसे ही अलग अलग हिमखंड हैं। यात्रा कितना जोखिम है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1996 में 250 श्रद्धालु अमरनाथ यात्रा के दौरान खराब मौसम के चलते मारे गए, जो अमरनाथ यात्रा के इतिहास की सबसे बड़ी प्राकृतिक त्रासदी मानी जाती है। फिरहाल यह चमत्कार नहीं तो और क्या है। प्रतिवर्ष एक खास समय पर बर्फ का शिवलिंग तैयार होना और तय समय पर पिघल जाना। यह प्रकृति का चमत्कार ही तो है।
पौराणिक मान्यताएं
कहते है कि इस गुफा में भगवान शंकर ने माता पार्वती को अमरत्व और सृष्टि के सृजन या यूं कहे जीवन और मृत्यु के रहस्य के बारे में बताया था। दरअसल, पार्वती लगातार अपने पति से अमरत्व और सृष्टि के निर्माण का राज जानना चाहती थीं। वह जानना चाहती थी कि संसार के हर प्राणी तथा पार्वती स्वयं भी जन्म मृत्यु से बंधे हैं तो भगवान शंकर क्यों नहीं। उन्होंने देवाधिदेव माहदेव से प्रश्न किया की ऐसा क्यूं होता है की आप अजर अमर है और मुझे हर जन्म के बाद नए स्वरुप में आकर फिर से वर्षो की कठोर तपस्या के बाद आपको प्राप्त करना होता है। जब मुझे आपको ही प्राप्त करना है तो फिर मेरी यह तपस्या क्यूं? मेरी इतनी कठोर परीक्षा क्यूं? और आपके कंठ में पड़ी यह नरमुण्ड माला तथा आपके अमर होने का कारण व रहस्य क्या है? महाकाल ने पहले तो माता को यह गूढ़ रहस्य बताना उचित नहीं समझा परन्तु माता की स्त्री हठ के आगे उनकी एक न चली। अन्त्ततोगत्वा महादेव शिव को मां पार्वती को अपनी साधना की अमर कथा जिसे हम अमरत्व की कथा के रूप में जानते है, सुनाने के लिए हामी करनी पड़ी। फिर पार्वती के साथ तांडव नृत्य कर इस गुफा में मृगछाल बिछाकर बैठ गए। कथा सुनाने से पूर्व उन्होंने कालाग्नि को आदेशित किया कि वह गुफा के आसपास समस्त प्राणियों को भस्म कर दे जिससे कोई भी अमरकथा सुनकर अमर न हो जाय। भगवान ने कहा कि यह सब अमरकथा के कारण है। पार्वती ने इस अमरकथा को सुनने की जिज्ञासा प्रकट की। लेकिन भगवान शंकर उस स्थान की तलाश में थे, जहां कोई तीसरा व्यक्ति सुन न सके। इसलिए उन्होंने इस गुफा को चुना। इसके बाद मां पार्वती संग एक गुप्त गुफा में प्रवेश कर गये। कोई व्यक्ति, पशु या पक्षी गुफा के अंदर प्रवेश कर अमर कथा को न सुन सके इसलिए शिव जी ने अपने चमत्कार से गुफा के चारों ओर आग प्रज्जवलित कर दी। फिर शिव जी ने जीवन की अमर कथा मां पार्वती को सुनाना शुरू किया। कथा सुनते-सुनते मां पार्वती को नींद आ गई और वह सो गईं जिसका शिवजी को पता नहीं चला। भगवन शिव अमर होने की कथा सुनाते रहे। इस समय दो सफेद कबूतर श्री शिव जी से कथा सुन रहे थे और बीच-बीच में गूं-गूं की आवाज निकाल रहे थे।
शिव जी को लग रहा था कि मां पार्वती कथा सुन रही हैं और बीच-बीच में हुंकार भर रहीं हैं। इस तरह दोनों कबूतरों ने अमर होने की पूरी कथा सुन ली। कथा समाप्त होने पर शिव का ध्यान पार्वती की ओर गया, जो सो रही थी। शिव जी ने सोचा कि पार्वती सो रही हैं तब इसे सुन कौन रहा था। तब महादेव की दृष्टि कबूतरों पर पड़ी, महादेव शिव कबूतरों पर क्रोधित हुए और उन्हें मारने के लिए तत्पर हुए। इस पर कबूतरों ने शिव जी से कहा कि हे प्रभु हमने आपसे अमर होने की कथा सुनी है यदि आप हमें मार देंगे तो अमर होने की यह कथा झूठी हो जाएगी। इस पर शिव जी ने कबूतरों को जीवित छोड़ दिया और उन्हें आशीर्वाद दिया कि तुम सदैव इस स्थान पर शिव पार्वती के प्रतीक चिन्ह के रूप निवास करोगो। यह शुक बाद में सद्योजात शुक-शिशु शुकदेव ऋषि के रूप में अमर हो गए। गुफा में आज भी कई श्रद्धालुओं को कबूतरों का एक जोड़ा दिखाई देता है, जिन्हें श्रद्धालु अमर पक्षी बताते हैं। कहते है जिन श्रद्धालुओं को कबूतरों को जोड़ा दिखाई देता है, उन्हें शिव पार्वती अपने प्रत्यक्ष दर्शनों से निहाल करके उस प्राणी को मुक्ति प्रदान करते हैं। माना जाता है कि भगवान शिव ने अर्द्धागिनी पार्वती को इस गुफा में एक ऐसी कथा सुनाई थी, जिसमें अमरनाथ की यात्रा और उसके मार्ग में आने वाले अनेक स्थलों का वर्णन था। यह कथा कालांतर में अमरकथा नाम से विख्यात हुई। कहा जाता है भगवान शिव जब पार्वती को अमर कथा सुनाने ले जा रहे थे, तो उन्होंने अपना नंदी बैल को पहलगाम (बैलग्राम) में, चंदनवाड़ी में चांद, शेषनाग में गले का सर्प, महागुनाश में अपने बेटे गणेश को और पंचतत्व (पृथ्वी, आकाश, पानी, हवा और अग्नी) जिससे मानव बना है को पंचतरणी में छोड़ा और पवित्र गुफा में विराजकर कालाग्नी के द्वारा सभी जीवित जीव को नष्ट कर मां पार्वती को अमरकथा सुनायी जो सौभाग्य से अंडे से बना कबूतर ने सुना और अमर हो गया। ये सभी स्थान अभी भी अमरनाथ यात्रा के दौरान रास्ते में दिखाई देते हैं। संगम में अमरावती एवं पंचतरणी नदी का संगम है, पंचतरणी में भैरव पहाड़ी के तलहटी में पांच नदियां बहती हैं जो भगवान शिव के जटाओं से निकलती है, ऐसी मान्यता है। इस प्रकार महादेव ने अपने पीछे जीवनदायिनी पांचों तत्वों को भी अपने से अलग कर दिया।
अमरनाथ की अमरकथा
इस कथा का नाम अमरकथा इसलिए है क्योंकि इसको सुनने से शिवधाम की प्राप्ति होती है। कहते है शुकदेव जब नैमिषारण्य गए तो वहां ऋषियों ने उनका बड़ा आदर सत्कार किया और उनसे अमरकथा सुनाने का आग्रह किया। शुक ने अपनी तारीफ से खुश होकर अमर कथा सुनानी आरंभ कर दी। कहा जाता है कि जैसे ही कथा आरंभ हुई तो कैलाश पर्वत, क्षीर सागर और ब्रह्मलोक भी हिलने लगे। ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा समस्त देवता उस स्थल पर पहुंचे जहां पर अमर कथा चल रही थी। तब भगवान शंकर को स्मरण हुआ कि यदि इस कथा को सुनने वाले अमर हो गए तो पृथ्वी का संचालन बंद हो जाएगा और फिर देवताओं की प्रतिष्ठा में अंतर आ जाएगा। इसीलिए भगवान शंकर क्रोध में आ गए और उन्होंने श्राप दिया कि जो इस कथा को सुनेगा वह अमर नहीं होगा परंतु वह शिव लोक अवश्य प्राप्त करेगा।
5000 साल पुराना है अमरनाथ यात्रा
अमरनाथ गुफा का सबसे पहले पता 5000 साल पहले यानी सोलहवीं शताब्दी के पूर्वाध में एक मुसलमान गडरिए बूटा मलिक को चला था। आज भी चौथाई चढ़ावा उस मुसलमान गडरिए के वंशजों को मिलता है। कहते है इस गड़रिए को कोई संत दिखाई दिए थे। संत ने गड़रिए को कोयले से भरी हुई एक पोटली दी थी। जब गड़रिया अपने घर पहुंचा तब पोटली के अंदर का कोयला सोना बन गया था। यह चमत्कार देखकर गडेरिया आश्चर्यचकित हो गया और संत को खोजने के लिए पुनः उसी स्थान पर पहुंच गया। संत को खोजते-खोजते उस गड़ेरिए को अमरनाथ की गुफा दिखाई दी। जब वहां के लोगों ने इस चमत्कार के विषय में सुना तो अमरनाथ गुफा को दैवीय स्थान माना जाने लगा और यहां पूजन शुरू हो गया। हालांकि एक अन्य किंवदंती के अनुसार भृगु ऋषि ने सबसे पहले वहां शिवलिंगम के दर्शन किए थे। आश्चर्य की बात यह है कि अमरनाथ गुफा एक नहीं है। अमरावती नदी के पथ पर आगे बढ़ते समय और भी कई छोटी-बड़ी गुफाएं दिखती हैं। वे सभी बर्फ से ढकी हैं। बृंगेश सहिंता, नीलमत पुराण, कल्हण की राजतरंगिनी आदि में इस का बराबर उल्लेख मिलता है। बृंगेश संहिता में कुछ महत्वपूर्ण स्थानों का उल्लेख है जहां तीर्थयात्रियों को श्री अमरनाथ गुफा की ओर जाते समय धार्मिक अनुष्ठान करने पड़ते थे। उनमें अनन्तनया (अनन्तनाग), माच भवन (मट्टन), गणेशबल (गणेशपुर), मामलेश्वर (मामल), चंदनवाड़ी (2,811 मीटर), सुशरामनगर (शेषनाग) 3454 मीटर, पंचतरंगिनी (पंचतरणी) 3845 मीटर और अमरावती शामिल हैं। कल्हण की राजतरंगिनी तरंग द्वितीय में कश्मीर के शासक सामदीमत (34 ईपू-17वीं ईस्वी) का एक आख्यान है। वह शिव का एक बड़ा भक्त था जो वनों में बर्फ के शिवलिंग की पूजा किया करता था। बर्फ का शिवलिंग कश्मीर को छोड़कर विश्व में कहीं भी नहीं मिलता।
कल्हन ने यह भी उल्लेख किया है कि अरेश्वरा (अमरनाथ) आने वाले तीर्थयात्रियों को सुषराम नाग (शेषनाग) आज तक दिखाई देता है। नीलमत पुराण में अमरेश्वरा के बारे में दिए गए उल्लेख से पता चलता है कि इस तीर्थ के बारे में छठी-सातवीं शताब्दी में भी जानकारी थी। कश्मीर के महान शासकों में से एक था जैनुलबुद्दीन (1420-70 ईस्वी) जिसे कश्मीरी लोग प्यार से बादशाह कहते थे। उसने अमरनाथ गुफा की यात्रा की थी। इस बारे में उसके इतिहासकर जोनरजा ने उल्लेख किया है। अकबर के इतिहासकर अबुल पएजल (16वीं शताब्दी) ने आइन-ए-अकबरी में उल्लेख किया है कि अमरनाथ एक पवित्र तीर्थस्थल है। गुफा में बर्फ का एक बुलबुला बनता है। जो थोड़ा-थोड़ा कर के 15 दिन तक रोजाना बढता रहता है और दो गज से अधिक ऊंचा हो जाता है। चन्द्रमा के घटने के साथ-साथ वह भी घटना शुरू कर देता है और जब चांद लुप्त हो जाता है तो शिवलिंग भी विलुप्त हो जाता है। स्वामी विवेकानन्द ने 1898 में 8 अगस्त को अमरनाथ गुफा की यात्रा की थी और बाद में उन्होंने उल्लेख किया कि मैंने सोचा कि बर्फ का लिंग स्वयं शिव हैं। मैंने ऐसी सुन्दर, इतनी प्रेरणादायक कोई चीज नहीं देखी और न ही किसी धार्मिक स्थल का इतना आनन्द लिया है। अमरनाथ तीर्थयात्रियों की ऐतिहासिकता का समर्थन करने वाले इतिहासकारों का कहना है कि कश्मीर घाटी पर विदेशी आक्रमणों और हिन्दुओं के वहां से चले जाने से उत्पन्न अशांति के कारण 14वीं शताब्दी के मध्य से लगभग तीन सौ वर्ष की अवधि के लिए यात्रा बाधित रही। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि 1869 के ग्रीष्म काल में गुफा की फिर से खोज की गई और पवित्र गुफा की पहली औपचारिक तीर्थ यात्रा तीन साल बाद 1872 में आयोजित की गई थी। इस तीर्थयात्रा में मलिक भी साथ थे। कश्मीर घाटी में पिछले दो दशकों के दौरान आतंकवाद के बावजूद अमरनाथ यात्रा निर्बाध जारी है।
अमरनाथ जाने के लिए हैं दो रास्ते
जम्मू-काश्मीर में प्रकृति की देन है अमरनाथ गुफा। भगवान शिव को समर्पित यह गुफा 12,756 फीट की उंचाई पर सिथत है। यह श्रीनगर से 141 किमी दूर है। बाबा अमरनाथ यात्रा पर जाने के लिए दो रास्ते हैं। एक पहलगाम होकर जाता है और दूसरा सोनमर्ग बलटाल से जाता है। यानी देशभर के किसी भी क्षेत्र से पहले पहलगाम या बलटाल पहुंचना होता है। इसके बाद की यात्रा पैदल की जाती है। पहलगाम से अमरनाथ जाने का रास्ता सरल और सुविधाजनक समझा जाता है। बलटाल से अमरनाथ गुफा की दूरी 14 किमी है, लेकिन यह मार्ग पार करना मुश्किलभरा होता है। इसी वजह से अधिकतर यात्री पहलगाम के रास्ते अमरनाथ जाते हैं। हालांकि पवित्र गुफा सिंध घाटी में सिंध नदी की एक सहायक नदी अमरनाथ (अमरावती) के पास स्थित है तथापि इस तक परम्परागत रूप से बरास्ता लिदर घाटी पहुंचा जाता है। श्रध्दालु इस मार्ग पर दक्षिण कश्मीर में पहलगांव से होकर पवित्र गुफा पहुंचते हैं और चंदनवाड़ी, पिस्सू घाटी, शेषनाग और पंचतरनी से गुजरते हुए लगभग 46 किमी की यात्रा करते हैं। एक और छोटा रास्ता श्रीनगर -लेह राजमार्ग पर स्थित बालताल से है। यह मात्र लगभग 15 किमी है और इसमें कुछ क्षेत्र सीधी चढाई और गहरी ढलान वाले हैं। अतीत में यह मार्ग ग्रीष्म ऋतु की शुरूआत में प्रयोग में आता था लेकिन कभी-कभी बर्फ के पिघलने के कारण इस मार्ग का प्रयोग असंभव हो जाता था। लेकिन समय के बीतने के साथ परिस्थितियों में सुधार हुआ है और दोनों ही मार्गों पर यात्रा काफी आसान हो गई है। बालटाल के रास्ते में पड़ने वाले बराड़ीतक का 14 किमी का मार्ग सुरक्षित नहीं है। नीचे उन्माद से परिपूर्ण विकराल रूप धारण किये सिन्धु नदी और ऊपर कच्ची पहाड़ियां। इस पहाड़ी से पत्थर गिर कर (विशेष कर बारिस में) कब इहलीला समाप्त कर दे या पांव फिसल कर नीचे नदी अपने आगोश में ले ले, सब भगवान भरोसे है।
कुछ जरुरी सुझाव
यात्रा से पहले श्राइन बोर्ड के तरफ से कुछ औपचारिकताएं पूरी करनी होती है, जिसमें श्राइन बोर्ड के तरफ से दो फार्म भर कर जे.एंड.के बैंक या अन्य बैंकों में जमा करना होता है। पहला फार्म-ए एक आवेदन के रूप में होता है, जिस पर एक पासपोर्ट आकार का रंगीन फोटो लगाना होता है और दूसरा फार्म यात्रा परमिट का होता है जिसमें तीन भाग होते हैं। उन तीनों पर भी पासपोर्ट आकार के फोटो लगाने होते हैं। इसका एक भाग चंदनवारी प्रवेश द्वार पर, दूसरा पवित्र गुफा के प्रवेश द्वार पर तथा तीसरा भाग पूरी यात्रा के दौरान अपने पास पहचान पत्र के रूप में रखना होता है। आजकल इंटरनेट की सुविधा होने के कारण ये औपचारिकताएं भी ऑन-लाइन संभव है। औपचारिकताएं पूरी होने के बाद सफर की शुरुवात होती है। यात्रा के वक्त साथ में एक जोड़ी जूता, 4 से 5 किलोमीटर चलने का अभ्यास, टार्च, चश्मा, बरसाती, गर्म ट्रैकशूट, पैजामी, बनियान, एक जोड़ी कपड़ा दर्शन हेतु, दस्ताना, सनस्क्रीन लोशन, वैसलिन, कोल्ड क्रीम, ग्लूकोज, काली मिर्च पाउडर, काला नमक, भूने चने, ड्राई फ्रुट, चाकलेट, नींबू कुछ जरूरी दवाएं जैसे बुखार, उल्टी, दस्त, चक्कर, घबराहट, आदि के उपचार हेतु रखना चाहिए। हालांकि रास्ते के मनोरम प्राकृतिक दृश्यों, झरनों, झील व पहाड़ आदि यात्रियों की थकान मिटाने में सहायक होते हैं। बर्फ के बने रास्तों पर डंडे के सहारे चलना एक अलग ही आनंद का एहसास कराता है। चारों तरफ पहाड़ों से घिरा एवं सड़क के किनारे लिद्दर नदी बलखाती हुई पहलगाम के सुंदरता में चार चांद लगाती है।
कई तीर्थ स्थलों को नष्ट किया जा चुका है
कहते है कश्मीर में असंख्य तीर्थ थे, जिनमें से अधिकतर का मुगल काल में अस्तित्व मिटा दिया गया। फिर भारत पाकिस्तान के युद्ध में पाकिस्तान द्वारा अधिकृत किए गए कश्मीर के सभी तीर्थों को नष्ट कर दिया गया, जो सभी शिव से जुड़े थे। इन सभी में अमरनाथ का अधिक महत्व है। उदाहर के तौर पर जम्मू में एक नगर है अवंतीपुर। किसी समय यह नगर कश्मीर की राजधानी था, राजा अवंती वर्मन के नाम पर बसाया गया था। पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने यहां के प्रसिद्ध मंदिर को जमीन से खोदकर निकाला है, जिसकी छटा ध्वस्त हो चुकी है। परंतु 700-900 वर्ष पुराना यह मंदिर अपने काल की समृद्धि, उत्कृष्ट कला कौशल तथा स्थापत्य को प्रदर्शित करने के लिए पर्याप्त है।
पहलगाम
प्रकृति की गोद में बसे पहलगाम से अमरनाथ यात्रा की शुरुआत होती है। कहा जाता है कि पहलगाम से पवित्र गुफा तक का मार्ग संसार की सुंदरतम पर्वत मालाओं का मार्ग है जो अक्षरशः सत्य है। इसमें हिमानी घाटियां, ऊंचाई से गिरते जलप्रपात, बर्फ से ढके सरोवर, उनसे निकलती सरिताएं, फिर उन्हें पार करने के लिए प्रकृति द्वारा निर्मित बर्फ के पुल। यात्री इन सब को मंत्रमुगध होकर देखते हैं और वातावरण में अजीब सी शांति महसूस करते हैं। अठखेलियां करती लिद्दर नदी के किनारे बसा एक छोटा सा कस्बा पहलगाम के नाम से जाना जाता है। यहीं से यात्रा के लिए आवश्यक उचित सामान मूल्य या किराए पर मिल जाता है। टैंटों, खच्चर, पालकी तथा पिट्ठू का इंतजाम भी यहीं से हो जाता है जिनका सरकारी तौर पर दाम होता है। वैसे तो रास्ते में स्वयंसेवी संगठनों द्वारा लंगर लगाए गए होते हैं, फिर भी यात्रियों को अपने साथ कुछ जलपान का सामान ले जाना चाहिए।
चंदनबाड़ी
पहलगाम से श्रावण पूर्णिमा से तीन दिन पहले, शिव की प्रतीक पवित्र छड़ी के नेतृत्व में ढोल-ढमाकों, दुदुंभियों और ‘हर-हर महादेव’ के जयघोष के बीच साधु-संतों की टोलियों के साथ यात्री अगले पड़ाव चंदनवाड़ी की ओर बढ़ते हैं। यह पहलगाम से 16 किमी दूर है। चंदनवाड़ी 9500 फुट की ऊंचाई पर पहाड़ी नदियों के संगम पर एक सुरम्य घाटी है और लिद्दर नदी पर बना बर्फ का पुल आकर्षण का मुख्य केंद्र होता था लेकिन अब अधिक तापमान के कारण उसके दर्शन दुर्लभ हो गए हैं। यहीं पर जलपान करके तथा थोड़ा विश्राम करके आगे की कठिन चढ़ाई ‘पिस्सू घाटी’ की ओर बढ़ा जाता है। पहलगाम से चंदनवाड़ी कार या टैक्सी में एक घंटे के भीतर पहुंचा जा सकता है।
शेषनाग
चंदनवाड़ी से 13 किमी दूर है शेषनाग। पिस्सू टाप की कठिन चढ़ाई पार कर जोजापाल नामक चरागाह से गुजरते हुए लिद्दर के किनारे चलते हुए शेषनाग पहुंचा जा सकता है। यहां पर झील का सौंदर्य अद्भुत है। 12200 फुट की ऊंचाई पर हिमशिखरों के बीच घिरी यह हिम से आच्छादित झील, लिद्दर नदी का उद्गम स्थल है। यहां रात्रि को लोग विश्राम करके आगे की यात्रा आरंभ करते हैं।
पंजतरणी
13 किमी दूर पंजतरणी की ओर से यात्रा का दूसरा व दुर्गम चरण आंरभ होता है। फिर से शुरू होती है एक और कठिन चढ़ाई महागुनस शिखर की जो 14800 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। इस शिखर पर आक्सीजन की कमी है क्योंकि अमरनाथ यात्रा के दौरान यही शिखर सबसे ऊंचा है। आक्सीजन की कमी के कारण सांस फूलता है। हालांकि स्थान-स्थान पर चिकित्सा सहायता भी उपलब्ध रहती है। शिखर पर चढने के उपरांत पोशपथरी को पार करके 12500 फुट की ऊंचाई पर भैरव पर्वत के दामन में है पांच नदियां अर्थात पंजतरणी। यहां पर यात्री रात को विश्राम करते हैं और प्रातःकाल गुफा की ओर बढ़ते हैं जो पंजतरणी से मात्र 6 किमी की दूरी पर है। पंजतरणी से गुफा तक के मार्ग में पुनरू दुर्गम चढ़ाई का सामना करना पड़ता है। रास्ता भयानक भी है और सुंदर भी। पगडंडी से नीचे नजर जाते ही खाइयों में बहती हिम नदी को देख कर डर लगता है। फिर एक मोड़ पर गुफा का दूर से दर्शन होने पर लोग उत्साहित हो जय-जयकार करते बर्फ के पुल को पार करके पहुंचते हैं पवित्र गुफा के नीचे बहती अमर गंगा के तट पर। यहीं से स्नान करके लोग उस पवित्र गुफा में जाते हैं। लगभग 100 फुट चौड़ी तथा 150 फुट लंबी गुफा में प्राकृतिक पीठ पर हिम निर्मित शिवलिंग के दर्शन पाकर लोग अपने आप को धन्य समझते हैं। इस तरह भाग्यशाली तीर्थयात्री भगवान अमरनाथ के पावन दर्शन कर अलौकिक आनंद का अनुभव कर अपने को धन्य समझते हैं। लौटते समय यात्रीगण गुफा में से पवित्र सफेद भस्म अपने शरीर पर मलकर हर-हर-महादेव उच्चारते हुए पुनः अपने-अपने स्थान पर लौटने लगते हैं। यात्रा समाप्ति से पूर्व गुफा में रहने वाले कबूतरों को देख यात्री ‘जय’ शब्द अवश्य उच्चारित करते हैं, जो शिव स्वरूप हो जाते हैं। ये शिवगण कबूतर यात्रियों के ‘विघ्रहरण’ माने जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि अगर गुफा स्थित होकर इन कबूतरों को बिना देखे जो नीचे उतरता है, उन्हें ‘तीर्थद्रोह’ का पाप लगता है व उनकी यात्रा अधूरी समझी जाती है।
छड़ी मुबारक
अमरनाथ यात्रा ‘छड़ी मुबारक’ के साथ चलती है, जिसमें यात्री एक बहुत बड़े जुलूस के रूप में अपनी यात्रा आरंभ करते हैं। इसमें अनगिनत साधु भी होते हैं, जो अपने हाथों में त्रिशूल और डमरू उठाए, ’बम-बम भोले तथा जयकारा वीर बजरंगी-हर हर महादेव’ के नारे लगाते हुए बड़ी श्रद्धा तथा भक्ति के साथ आगे-आगे चलते हैं। ‘छड़ी मुबारक’ हमेशा श्रीनगर के दशनामी अखाड़ा से कई सौ साधुओं के एक जुलूस के रूप में 140 किमी की विपथ यात्रा पर रवाना होती थी, जिसका प्रथम पड़ाव पम्पोर में, दूसरा पड़ाव बिजबिहारा में और अनंतनाग में दिन को विश्राम करने के बाद सायं को मटन की ओर रवाना होकर रात का विश्राम करके दूसरे दिन प्रातः एशमुकाम की ओर चल पड़ती थी। जब से आतंकवाद की छाया कश्मीर पर पड़ी है तभी से ‘छड़ी मुबारक’ की शुरुआत जम्मू से की जाती रही है और दशनामी अखाड़ा तथा अन्य पड़ावों पर इसके विश्राम मात्र औपचारिकता बन गए थे लेकिन गत वर्ष से यह पुनः अपनी पुरानी परंपरा के मुताबिक चल रही है। पहले यह छड़ी पहलगाम पहुंच कर दो दिन विश्राम करती थी, जहां से हजारों की संख्या में यात्री इसके साथ गुफा की यात्रा के लिए आगे बढ़ते थे लेकिन अब यह पहलगाम में इतनी देर नहीं रुकती। बल्कि आज जब तक कि यह छड़ी गुफा तक पहुंचती है, यात्री छड़ी से पहले ही अपनी यात्रा आरंभ करके वापस भी लौट आते हैं।
हेलिकॉप्टर सेवा सस्ती
हेलिकॉप्टर सेवा सस्ती की गई है। बालटाल-पंचतरनी-बालटाल के लिए एक साइड के 1445 रुपए और पहलगाम-पंचतरनी-पहलगाम 2355 रुपए में बुकिंग करवा सकते हैं। 2 से 12 वर्ष के बच्चों को आधा किराया लगेगा।
अमरनाथ गुफा में विराजमान रहते भगवान शिव
लोक कथाओं के अनुसार, भगवान शिव साक्षात अमरनाथ गुफा में विराजमान रहते हैं। ऐसा माना जाता है कि एक बार माता पार्वती ने भगवान शिव से उनके अमरत्व का कारण जानना चाहा, तो भगवान शिव ने माता पार्वती को कहा कि इसके लिए आपको अमर कथा सुननी पड़ेगी। इसके लिए उन्होंने ऐसे स्थान की तलाश करना शुरू किया, जहां कोई और इस अमर कथा को नहीं सुन सकता था। अतः वे अमरनाथ गुफा पहुंचे। भगवान शिव ने जब माता पार्वती को अमर कथा सुनाने के लिए अमरनाथ गुफा की ओर प्रस्थान किया, तो रास्ते में सबसे पहले उन्होंने पहलगाम में अपने नंदी (जिस बैल की सवारी करते थे) का परित्याग किया। इसके बाद, चंदनवाड़ी में भगवान शिव ने अपने बालों (जटाओं) से चंद्रमा को मुक्त किया। शेषनाग नामक झील के तट पर उन्होंने अपने गले से सर्पों (सांपों) को भी मुक्त कर दिया। उन्होंने अपने पुत्र गणेश को महागुनस पर्वत पर छोड़ने का फैसला किया। फिर पंचतरणी नामक स्थान पर पहुंचकर भगवान शिव ने पंच तत्वों (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश) का भी त्याग कर दिया। इन सब को पीछे छोड़कर भगवान शिव ने माता पार्वती के साथ अमरनाथ गुफा में प्रवेश किया और वहां पर समाधि ले ली।
गुफा से जुड़े रहस्य
यह दुनिया का एकमात्र ऐसा शिवलिंग है, जो चंद्रमा की रोशनी के चक्र के साथ बढ़ता और घटता है। यह शिवलिंग श्रावण शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को पूरे आकार में रहता है और अमावस्या तक इसका आकार घटने लगता है। ऐसा प्रत्येक साल होता है। इसी बर्फ के शिवलिंग के दर्शन के लिए हर साल लाखों की संख्या में श्रद्धालु अमरनाथ की पवित्र गुफा की यात्रा करते हैं। अमरनाथ गुफा में स्थित पार्वती शक्तिपीठ 51 शक्तिपीठों में से एक हैं।
अमरेश महादेव
श्री अमरनाथ गुफा में बर्फ से बने शिवलिंग से जुड़ी इस कथा को सुनाने के लिए माता पार्वती जी भगवान सदाशिव से कहती हैं, ‘‘प्रभो! मैं अमरेश महादेव की कथा सुनना चाहती हूं। मैं यह भी जानना चाहती हूं कि महादेव गुफा में स्थित होकर अमरेश क्यों और कैसे कहलाए?’’ सदाशिव भोलेनाथ माता पार्वती का प्रश्र सुनकर कहने लगे आदिकाल में ब्रह्मा, प्रकृति, अहंकार, स्थावर (पर्वतादि) जंगल (मनुष्य) संसार की उत्पत्ति हुई। इस क्रमानुसार देवता, ऋषि, पितर, गंधर्व, राक्षस, सर्प, यक्ष, भूतगण, कूष्मांड, भैरव, गीदड़, दानव आदि की उत्पत्ति हुई। इस तरह नए प्रकार के भूतों की सृष्टि हुई परंतु इंद्र आदि देवता सहित सभी मृत्यु के वश में थे। देवता, भगवान सदाशिव के पास आए क्योंकि उन्हें मृत्यु का भय था। भय से त्रस्त सभी देवताओं ने भगवान भोलेनाथ की स्तुति की और कहा हमें मृत्यु बाधा करती है। आप कोई ऐसा उपाय बतलाएं जिससे मृत्यु हम लोगों को बाधा न करे। देवताओं की बात सुनकर भोलेनाथ स्वामी बोले मैं आप लोगों की मृत्यु के भय से रक्षा करूंगा। यह कहते हुए सदाशिव ने अपने सिर पर से चंद्रमा की कला को उतार कर निचोड़ा और देवगणों से बोले, यह आप लोगों के मृत्यु रोग की औषधि है। उस चंद्रकला के निचोडऩे से पवित्र अमृत की धारा बह निकली और वह धारा बाद में अमरावती नदी के नाम से विख्यात हुई। चंद्रकला को निचोड़ते समय भगवान सदाशिव के शरीर पर जो अमृत बिंदु गिरे वे सूख कर पृथ्वी पर गिर पड़े। पावन गुफा में जो भस्म है वह इसी अमृत बिंदु के कण हैं। कहते हैं सदाशिव भगवान देवताओं पर प्रेम न्यौछावर करते समय स्वयं द्रवीभूत हो गए। देवगण सदाशिव को जल स्वरूप देख कर उनकी स्तुति में लीन हो गए और बारम्बार नमस्कार करने लगे। भोलेनाथ ने दयायुक्त वाणी से देवताओं से कहा, तुमने मेरा बर्फ का लिंग शरीर इस गुफा में देखा है। इस कारण मेरी कृपा से आप लोगों को मृत्यु का भय नहीं रहेगा। अब तुम यहीं पर अमर होकर शिव रूप को प्राप्त हो जाओ। आज से मेरा यह अनादिलिंग शरीर तीनों लोकों में अमरेश के नाम से विख्यात होगा। भगवान सदाशिव देवताओं को ऐसा वर देकर उस दिन से लीन होकर गुफा में रहने लगे। भगवान सदाशिव महाराज ने अमृत रूप सोमकला को धारण करके देवताओं की मृत्यु का नाश किया इसलिए तभी से उनका नाम अमरेश्वर प्रसिद्ध हुआ है।