बस्तर के गांव-जंगल से पहले जब फोर्स गुजरती थी तो लोग अनहोनी की आशंका से छिप जाते थे। पर दंतेवाड़ा में ऐसे दृश्य कम होने लगे हैं। फोर्स के पहुंचने पर बच्चे-बूढ़े-युवा, महिलाएं सभी उनके पास पहुंच जाते हैं। इस दौरान उनकी निगाहें ऐसे शख्स को खोजती रहती हैं, जिनके हाथों में एके-47 के साथ गले में आला (स्टेथोस्कोप) लटकता हो। वजह, वह गोली जो देता है, उन्हें भी और नक्सलियों को भी। फर्क सिर्फ इतना होता कि उन्हें जिंदगी देने के लिए गोली (दवा) देता है और नक्सलियों की जिंदगी छीनने के लिए गोली (एके-47 से) देता है। यहां हम बात कर रहे हैं छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले के एसपी डॉ. अभिषेक पल्लव की, जो आइपीएस होने के साथ दिल्ली एम्स से पोस्ट ग्रेजुएट डॉक्टर भी हैं। उनकी पदस्थापना के बाद जिले में फोर्स ग्रामीणों के करीब पहुंची है। भरोसा कायम किया है। गांव वाले उन्हें ‘खुशियों की गोली” देने वाला अफसर कहते हैं। नक्सल प्रभावित अंदरूनी गांवों में स्वास्थ्य शिविर लगाते हैं। आदिवासियों का इलाज कर उनका दिल जीत रहे हैं। मकसद साफ है, यहां के नौजवानों को नक्सलवाद से दूर करना। स्वस्थ समाज का निर्माण करना। यही वजह है कि उनकी पदस्थापना के बाद से जिले में नक्सली वारदातों में कमी आई है। सालभर में ही करीब 125 नक्सलियों की जहां गिरफ्तारी हुई है, वहीं कई नक्सली आत्मसमर्पण कर चुके हैं। आइए, उन्हीं से जानते हैं कि आखिर एक डॉक्टर गोला-बारूद की दुनिया में कैसे आ गया|
मां और पिता की इच्छाओं में बनाया संतुलन
डॉ. पल्लव ने बताया कि मां चाहती थीं कि मैं डॉक्टर बनकर मानव सेवा करूं इसलिए डॉक्टरी की पढ़ाई की और एम्स में सेवा देने लगा। लेकिन पिता आर्मीमैन थे, इसके चलते दिल में देश सेवा का जज्बा भी उबाल मारते रहता था।
एम्स में लोगों का इलाज करते समय ही विचार आया कि डॉक्टरी करके जनसेवा तो की जा सकती है, लेकिन देशसेवा के लिए यहां जगह थोड़ी कम है। लेकिन फोर्स ज्वाइन कर देशसेवा के साथ जनसेवा भी की जा सकती है। दोनों की इच्छाओं के बीच संतुलन बनाते हुए आज यहां हूं। विश्वास जीतने में डॉक्टरी की बड़ी भूमिका
एसपी पल्लव कहते हैं कि आदिवासियों के करीब जाने, उनका विश्वास जीतने के लिए डॉक्टरी से बेहतर कुछ भी नहीं। किसी के दर्द को आपने अपना लिया, किसी के जख्म को आपने सहला दिया, तो फिर वह आपका मुरीद हो जाता है। गांवों में स्वास्थ्य शिविर लगाकर वे उनके करीब पहुंच जाते हैं। उनकी भावनाओं को समझ पाते हैं। उनकी जरूरतों का पता चल जाता है। प्रशासन के सहयोग से उन्हें पूरा करने की कोशिश करते हैं। स्वास्थ्य शिविर में पहुंचने वाले कुछ ग्रामीणों के परिजन नक्सल संगठन से भी जुड़े होते हैं। उन्हें वे फोर्स का मानवीय स्वरूप भी दिखाते हैं। मुठभेड़ में घायल नक्सली की बचाई थी जान
डॉ. पल्लव ने बताया कि शिविर में कभी किसी ने नहीं बताया कि वह नक्सली है। मार्च 2017 में बुरगुम में हुई मुठभेड़ के दौरान फायरिंग के बीच पेड़ के नीचे गंभीर रूप से घायल एक नक्सली मिला था। इस दौरान उन्होंने डॉक्टर का धर्म निभाते हुए पहले प्राथमिक उपचार किया, फिर जिला अस्पताल भेजा। ठीक होने के बाद उसे जेल हुई। रिहा होने के बाद आज वह गांव में रह रहा है। उसका पूरा परिवार फोर्स की खूब तारीफ करता है। पत्नी का हमेशा मिलता है साथ
एसपी डॉ. पल्लव कहते हैं कि आज अगर मैं दोनों कर्तव्यों को बखूबी निभा पा रहा हूं, तो उसके पीछे पत्नी डॉ. यशा पल्लव की बड़ी भूमिका है। वे त्वचा रोग विशेषज्ञ हैं। शिविर में वे भी साथ होती हैं। इससे खासकर ग्रामीण महिलाओं को अपनी बात रखने में सुविधा होती है।