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सेरसाह के नाम से बिख्यात कारगिल विजय के हीरो कैप्टन बिक्रम बत्रा की पुण्य तिथि है आज

 अगर मैं युद्ध में मरता हूं तब भी तिरंगे में लिपटा आऊंगा और अगर जीतकर आता हूं, तब अपने ऊपर तिरंगा तपेटकर आऊंगा, देश सेवा का ऐसा मौका कम ही लोगों को मिल पाता है। ये बातें थी 24 साल के कैप्टन विक्रम बत्रा की। कैप्टन विक्रम बत्रा कारगिल युद्ध में 7 जुलाई को ही शहीद हो गए थे। आज उनकी 20 वीं पुण्यतिथि है। इस मौके पर देश के लिए अपने प्राणों को कुर्बान कर देने वाले जाबांज को आज फिर से याद किया जा रहा है। कारगिल युद्ध के हीरो रहे कैप्टन विक्रम बत्रा की बहादुरी के कारण ही उन्हें भारतीय सेना ने शेरशाह तो पाकिस्तानी सेना ने शेरखान नाम दिया था। मात्र 24 साल की उम्र में देश के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर करने वाले इस जांबाज की बहादुरी के किस्से आज भी याद किए जाते हैं। उनकी बहादुरी को देखते हुए ही कै. विक्रम बत्रा को भारत सरकार ने परमवीर चक्र से अलंकृत किया था। शहीद कैप्टन बत्रा के कहे गए ये अंतिम शब्द आज युवा पीढ़ी को प्रेरणा देते हैं। उनको ‘कारगिल का शेर’ भी कहा जाता है।                                                                                                                        जुड़वां पैदा हुए थे, 
कैप्टन विक्रम बत्रा का जन्म 9 सितंबर, 1974 को अध्यापक गिरधारी लाल बत्रा एवं माता कमला के घर हुआ था। कैप्टन बत्रा जुड़वा पैदा हुए थे। दो बेटियों के बाद जुड़वां बच्चों के जन्म पर दोनों के नाम लव-कुश रखे गए थे। लव यानी विक्रम और कुश यानी विशाल। उनकी प्रारंभिक शिक्षा मां कमला के मार्गदर्शन में हुई। बत्रा के जन्म के समय परिवार मंडी के जोगेंद्र नगर इलाके में रहता था। बाद में स्थाई रूप से ये लोग पालमपुर में आकर बस गए। उन्होंने केंद्रीय विद्यालय पालमपुर से 12 वीं की परीक्षा पास करने के बाद डीएवी कालेज चंडीगढ़ में बीएससी की। वह एनसीसी के होनहार कैडेट थे। इसी की वजह से उन्होंने सेना में जाने का निर्णय लिया।                                                                                                                                                      मार गिराए थे तीन घुसपैठिये 
कैप्टन विक्रम बत्रा की अगुवाई में सेना ने दुश्मन की नाक के नीचे से प्वाइंट 5140 छीन लिया था। उन्होंने अकेले ही 3 घुसपैठियों को मार गिराया था। उनकी वीरता ने यूनिट के जवानों में जोश भर दिया था और प्वाइंट 5140 पर भारत का झंडा लहरा दिया। उनके साथ रहे जवान ही उनकी बहादुरी के किस्से सुनाते हैं। आमतौर पर ये माना भी जाता है कि यदि कमांडर बेहतर तरीके से टुकड़ी का नेतृत्व करता है तो साथियों के हौसले बुलंद रहते हैं।                                                                                                                                                                                                                                                     ठुकरा दी थी मर्चेंट नेवी की नौकरी 
1997 में विक्रम बत्रा को मर्चेंट नेवी से नौकरी का ऑफर आया लेकिन उन्होंने लेफ्टिनेंट की नौकरी को चुना। 1996 में इंडियन मिलिट्री एकैडमी में मॉनेक शॉ बटालियन में उनका चयन किया गया। उन्हें जम्मू कश्मीर राइफल यूनिट, श्योपुर में बतौर लेफ्टिनेंट नियुक्त किया गया। कुछ समय बाद कैप्टन रैंक दिया गया। उन्हीं के नेतृत्व में टुकड़ी ने 5140 पर कब्जा किया था।                                                                                                                                          देश में छा गया था…यह दिल मांगे मोर 
पहली जून 1999 को उनकी टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया। हम्प व राकी नाब स्थानों को जीतने के बाद उसी समय विक्रम को कैप्टन बना दिया गया। इसके बाद श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे महत्त्वपूर्ण 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त करवाने का जिम्मा भी कैप्टन विक्रम बत्रा को दिया गया। बेहद दुर्गम क्षेत्र होने के बावजूद विक्रम बत्रा ने अपने साथियों के साथ 20 जून 1999 को सुबह तीन बजकर 30 मिनट पर इस चोटी को अपने कब्जे में ले लिया था। शेरशाह के नाम से प्रसिद्ध विक्रम बत्रा ने जब इस चोटी से रेडियो के जरिए अपना विजय उद्घोष ‘यह दिल मांगे मोर’ कहा तो सेना ही नहीं बल्कि पूरे भारत में यह शब्द गूंजने लगा था। इस लाइन का कई और जगहों पर भी इस्तेमाल किया गया। इसी दौरान विक्रम के कोड नाम शेरशाह के साथ ही उन्हें ‘कारगिल का शेर’ की भी संज्ञा दे दी गई।इसके बाद सेना ने चोटी 4875 को भी कब्जे में लेने का अभियान शुरू कर दिया। इसकी भी बागडोर विक्रम को सौंपी गई। उन्होंने जान की परवाह न करते हुए लेफ्टिनेंट अनुज नैयर के साथ कई पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतारा।अंतिम मिशन लगभग पूरा हो चुका था जब कैप्टन अपने कनिष्ठ अधिकारी लेफ्टीनेंट नवीन को बचाने के लिए लपके।लड़ाई के दौरान एक विस्फोट में लेफ्टीनेंट नवीन के दोनों पैर बुरी तरह जख्मी हो गए थे। जब कैप्टन बत्रा लेफ्टीनेंट को बचाने के लिए उनको पीछे घसीट रहे थे उसी समय उनके सीने पर गोली लगी और वे ‘जय माता दी’ कहते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। अदम्य साहस और पराक्रम के लिए कैप्टन विक्रम बत्रा को 15 अगस्त 1999 को परमवीर चक्र के सम्मान से नवाजा गया जो उनके पिता जीएल बत्रा ने प्राप्त किया।