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आधार कार्ड का विरोध करने वालो को झटका

सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले शुक्रवार को कहा कि संविधान पीठ के अंतिम फ़ैसले तक आयकर रिटर्न के लिए आधार कार्ड को अनिवार्य नहीं किया जा सकता। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि जिनके पास आधार कार्ड है, उन्हें इसे पैन कार्ड से जोड़ना होगा। आधार नंबर को पैन कार्ड से जोड़ने के प्रावधान को एक गैर-सरकारी संस्था ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। इस संस्था का आरोप है कि सरकार आधार पर दोहरा रवैया अपना रही है। उसका यह भी कहना है कि आधार कार्ड योजना सूचना के अधिकार के उलट है। इस तरह सूचनाएं इकट्ठा करने का काम कई देशों में पहले ही रोका जा चुका है।

आधार नंबर को अनिवार्य करने के विरोधी इससे अपने मौलिक अधिकारों के खिलाफ बताते हैं। उन्होंने मानवाधिकारों और मनुष्य के मूलभूत अधिकारों को मुद्दा बनाकर कोर्ट में आधार कार्ड के ख़िलाफ़ दलीलें दीं। कहा कि उनसे ज़बरन हाथों और उंगलियों के निशान आदि लिए जा रहे हैं। उन लोगों को कोर्ट ने यह कहते हुए राहत दी है कि कार्ड उन लोगों के लिए बाध्यकारी नहीं है। यह राहत अंतरिम तौर पर दी गई है। लेकिन आधार ऐक्ट और सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला लगभग एक ही भाषा में बात करते दिख रहे हैं। कोर्ट के इस फ़ैसले से यह प्रतीत हो रहा है कि सरकार की ओर से अटॉर्नी जनरल ने आधार को लेकर जो तर्क रखे हैं, उससे कोर्ट आंशिक रूप से सहमत है। जबकि विरोधियों का कहना है कि आधार जैसी परियोजना चीन, जर्मनी, ब्रिटेन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस और फिलिपींस जैसे विकसित देशों में रोकी जा चुकी है।

कानून के सभी जानकार इस बात को मानते हैं कि अतीत में इस तरह से कैदियों की पहचान ली जाती थी। कैदियों की पहचान अब भी ली जाती है और सज़ा पूरी होने पर उसे नष्ट कर दिया जाता है। लेकिन आधार में जिस तरह से पहचान ली जा रही है ये अनंत काल के लिए सरकार अपने पास रखेगी। साथ ही ये आंकड़े अमेरिकी और फ़्रांसीसी कंपनियों के साथ साझा भी किए जा सकते हैं। आधार एक्ट के मुताबिक़ सरकार अभी तो सिर्फ़ हाथों, उंगलियों और आंखों के निशान ले रही है। आगे नागरिकों की अन्य जैविक सूचनाएं भी ली जाएंगी। जैसे डीएनए और आवाज़ के सैंपल वगैरह।

एक तर्क यह ऐक्ट सूचना के अधिकार कानून के एकदम विपरीत है। अटॉर्नी जनरल के कहने पर सुप्रीम कोर्ट की न्यायमूर्ति चालमेश्वर की अध्यक्षता वाली तीन जजों की एक पीठ ने 11 अगस्त, 2015 को बायोमेट्रिक पहचान/आधार संख्या मामले की सुनवाई को बीच में ही रोक कर संविधान पीठ को सुपुर्द कर दिया था। ऐसा इस पीठ ने इसलिए किया क्योंकि अटॉर्नी जनरल ने यह तर्क रखा था कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है या नहीं इस बारे में केवल सक्षम संविधान पीठ ही सुनवाई कर सकती है। मगर अटॉर्नी जनरल को आधार मामले में इसी तीन जजों की पीठ के पास कुछ आदेश लेने के लिए जाना पड़ा था। इस पीठ ने उनको सुनने से यह कहते हुए मना कर दिया था कि इसकी सुनवाई केवल संविधान पीठ ही कर सकती है।