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भारत के स्वतंत्रता संग्राम की पहली जनक्रांति कहे जाने वाले संथाल विद्रोह के नायक सिद्धू-कानू और उनके परिजनों के लिए अन्याय ही नियति बन गई है.

 

महाजनों, ज़मींदारों और अंग्रेज़ अधिकारियों के अन्याय का शिकार हुए सिद्धू-कानू, उनके भाई चांद, भैरव और हज़ारों संथाल जनजाति के लोगों के साथ इतिहासकारों ने भी कम अन्याय नहीं किया है.

इतिहासकारों ने 1857 के ‘सिपाही विद्रोह’ को ही भारत की पहली आज़ादी की लड़ाई मान लिया है जबकि 1855 की इस जनक्रांति को महज ‘संथाल हुल’ की संज्ञा देकर ही समेट दिया गया है.

‘संथाल हुल’ के 150 वर्षों और भारत के 60वें स्वतंत्रता दिवस पर भी सिद्धो कानो की पांचवीं पीढ़ी के लोग सरकारी उपेक्षा का दंश झेल रहे हैं.

कभी यहाँ से संगठित होकर संथालों के एक बड़े समूह ने अंग्रेज़ों की ग़ुलामी के ख़िलाफ़ बगावत का बिगुल फूँका था. आज यह इल़ाका अभाव और पिछ़डेपन की जीती-जागती मिसाल है.

झारखंड के साहेबगंज ज़िले में स्थित भोगनाडीह गांव में ही सिद्धो कानू, चांद और भैरव की पांचवी पीढ़ी के परिजन रहते हैं.

दुर्दशा

नौ परिवारों के ये लगभग 46 सदस्य गरीबी, अभाव और अज्ञानता के साथ संघर्ष कर रहे हैं. इस वंश की सबसे बुजुर्ग 75 वर्षीया महिला बितिया मुर्मू को अफ़सोस है कि उन्होंने कभी अपने पोते-पोतियों को चंदा मामा की कहानी नहीं सुनाई.

वो कहती हैं ‘‘कैसे सुनाती? पूरी ज़िंदगी तो मज़दूरी और मेहनत करते हुए बीत गई. दिन भर खेत में काम करती हूँ. फिर बाज़ार जाकर धान बेचती हूँ. मेहनत करने के बाद मेरी बूढ़ी हड्डियों में इतनी ताकत नहीं रहती कि कुछ और करूँ. बिल्कुल बेजान हो जाती हूँ.’’

बितिया मुर्मू से मिलने के लिए हमें कई किलोमीटर पैदल चलकर उनके खेत पर जाना पड़ा क्योंकि वे सूर्य निकलने के बाद से ही काम में जुट जाती हैं. जब कुनबे की सबसे बुज़ुर्ग महिला का यह हाल है तो दूसरों की स्थिति बेहतर कैसे हो सकती है.

उनका सबसे बड़ा पुत्र 50 वर्षीय लीलू मुर्मू बढ़ई का काम करता है और कुनबे के अन्य मर्द भी मज़दूरी ही करते हैं, सिवाय भादो मुर्मू के जो अपने पड़दादा के नाम से स्थापित सिद्धो कानू विश्वविद्यालय में चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी है

राजनीति का अखाड़ा

हर साल ‘हुल दिवस’ पर 30 जून को भोगनाडीह विभिन्न दलों का राजनीतिक अखाड़ा बन जाता है. कोई नेता यहाँ तक पदयात्रा करता है तो कोई महान संथाल क्रांतिवीरों की याद में भाषणों के पुल बांधता है. हर साल आश्वासनों की झड़ी लगती है. मगर होता कुछ भी नहीं है.

इस साल भी 30 जून को ‘हुल दिवस’ के अवसर पर झारखंड के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने सिद्धो कानो के वंशज बच्चों को शिक्षा मुहैया कराने की बात कही.

इसी उद्देश्य से भोगनाडीह में एकलव्य आवासीय विद्यालय की स्थापना भी की गई. मगर सिद्धो कानू के वंशजों को करारा झटका तब लगा जब उस स्कूल में उन बच्चों को प्राथमिकता देने से इंकार करते हुए उन्हें प्रवेश परीक्षा के माध्यम से ही नामांकन कराने की हिदायत दी गई.

अशिक्षा और अज्ञान के अंधेरे में पिछली डेढ़ सदी से जूझ रहे इन क्रांतिकारियों के परिजनों ने अपनी छठी पीढ़ी के बच्चों को पढ़ाने-लिखाने का जो सपना देखा, वो तब टूट गया जब मंडल मुर्मू और कान्हू मुर्मू प्रवेश परीक्षा में फ़ेल हो गए.

भोगनाडीह के स्कूल में कार्यरत शिक्षक शीश मोहम्मद अंसारी बताते हैं कि जब मंडल मुर्मू और कान्हू मुर्मू फ़ेल हो गए तो पूरे इलाक़े के लोगों ने इसके विरोध में प्रदर्शन भी किया.

बेरुख़ी

75 वर्षीय बितिया मुर्मू को जो 300 रुपए वृद्धावस्था पेंशन के रूप में मिलते हैं उसका ज़्यादातर हिस्सा वो अपनी दवा पर ही खर्च कर देती हैं.

स्वतंत्रता संग्राम में अपनी जान गंवा देने वाले सिद्धू-कानू और उनके भाई चांद-भैरव की कुर्बानी की दुहाई लगभग हर नेता संथाल परगना में देते आए हैं. मगर आज तक किसी ने इनके परिजनों को आर्थिक मदद पहुँचाने का काम नहीं किया है.

खुद लीलू मुर्मू कहते हैं ‘‘सरकार ने 36 लाख रुपए खर्च करके भोगनाडीह में सिद्धो कानो पार्क बनाया है. ये वही स्थल है जहां कानो शहीद हुए थे. गांव के पीछे एकलव्य विद्यालय की स्थापना की गई है जहां हमारे बच्चों को कोई प्राथमिकता नहीं. पिछले साल एक ट्रैक्टर उपलब्ध कराया सरकार ने, मगर हमारे पास ट्रैक्टर में भरने के लिए तेल के पैसे नहीं है.’’

मुर्मू और उनके कुनबे के दूसरे लोग बताते हैं कि आज़ादी के बाद से इस इलाक़े में बिजली भी नहीं है. इस वर्ष बिजली आपूर्ति की व्यवस्था भी की गई. मगर यह चकाचौंध सिर्फ़ दो दिनों की मेहमान ही रही और उसके बाद पूरा इलाक़ा एक बार फिर लालटेन युग में वापस लौट आया है.

हालांकि इस वर्ष झारखंड सरकार ने क्रांतिवीरों के परिजनों को इंदिरा आवास योजना के तहत मकान देने की पेशकश की है. मगर इस पेशकश से परिजन नाराज़ हैं.

बितिया मुर्मू कहती हैं ‘‘इंदिरा आवास योजना के मकान तो ग़रीबी रेखा से नीचे रहने वालों को ही दिया जाता है. इसमें बड़ी बात क्या है? यह तो हमारा हक़ था. इतने बड़े योद्धाओं के परिजनों के लिए अलग मकान की व्यवस्था करनी चाहिए और अलग से आर्थिक मदद भी मिलनी चाहिए. उन्होंने तो कुर्बानी दी थी. अपना खून बहाया था और हमारे परिवार के बहुत सारे लोगों ने भी अपनी ज़िंदगी दी है.”

इतिहास

बितिया सिर्फ़ संथाली भाषा बोलती है. वो हिंदी बोल नहीं पातीं. मगर उनके पोते मंडल मुर्मू ने हमारे लिए दुभाषिए का काम किया और अपनी दादी की भावनाओं से हमें अवगत कराया.

पथराई आंखों से बितिया बताती हैं किस तरह 1855 में सिद्धो कानो के आह्वान पर संथाल लोगों ने ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ विरोध का शंखनाद किया था और 30 जून 1855 में 20 हज़ार संथाल भोगनाडीह में एकत्रित हुए थे.

उसी दिन उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के कार्यालयों में तोर फोर भी की थी. आक्रोशित संथालियों ने महेश लाल दत्त नामक एक दरोगा और अमरपारा के एक महाजन केना राम की हत्या कर दी.

उस वक्त की ब्रितानी हुकूमत ने सिद्धो को बरहाइत के पंचकतिया में एक बड़गद के पेड़ से लटका कर फांसी पर चढ़ा दिया था जबकि कानू को चांद-भैरव के साथ भोगनाडीह में मार दिया गया.

ब्रिटिश इतिहासकार हंटर के अनुसार लगभग 10 हज़ार संथाल इस दौरान शहीद हुए थे.

आज झारखंड सरकार ने पंचकतिया में उस बड़गद के पेड़ के चारों तरफ घेराबंदी तो ज़रूर की है मगर कहीं पर भी यह बोर्ड नहीं लगा हुआ है कि आखिर इस स्थल का महत्व क्या हैं.