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आठ अगस्त को दर्ज होती काकोरी कांड की घटना

लखनऊ [आलोक कश्यप]। देश को आजादी दिलाने के लिए अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ छिड़ी जंग में क्रांतिकारियों को हथियार खरीदने थे, जिसके लिए सरकारी खजाने को लूटने की योजना बनाई गई। हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के क्रांतिकारियों ने आठ अगस्त 1925 को काकोरी में ट्रेन लूटने की रणनीति बनाई थी, लेकिन वह कामयाब नहीं हो सके। लेकिन, अगले दिन क्रांतिकारी फिर से स्टेशन पहुंचे और घटना को अंजाम दिया।

सात अगस्त 1925 को क्रांतिकारियों ने शाहजहांपुर में बैठक कर अपनी रणनीति तय की थी। बैठक में  हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के सक्रिय क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्लाह खां, चंद्रशेखर आजाद, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, शचींद्रनाथ बख्शी, मन्मथ नाथ गुप्त सहित कई क्रांतिकारी शामिल हुए थे। यहीं तय हुआ था कि सहारनपुर से लखनऊ आने वाली आठ डाउन पैसेंजर से रोजाना जाने वाले अंग्रेजों के खजाने को लूट लिया जाए। अगले ही दिन योजनाबद्ध तरीके से क्रांतिकारियों ने ट्रेन लूटने की कोशिश की, लेकिन वह सफल नहीं हो सके।

अगर वह इस कोशिश में सफल हो जाते, तो काकोरी कांड की घटना इतिहास में आठ अगस्त को ही दर्ज हो जाती। वे करीब दस मिनट की देरी से वहां पहुंचे थे और उनके पहुंचने के पहले ही ट्रेन छूट चुकी थी। पहली बार असफल होने के बाद नए सिरे से योजना बनाई गई और फिर नौ अगस्त को पूरी ताकत के साथ क्रांतिकारियों ने सफलता पूर्वक घटना को अंजाम दिया। क्रांतिकारी राजेंद्रनाथ लाहिड़ी ने सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर ट्रेन की चेन खींचकर उसको रोक दिया, फिर राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में अशफाक उल्ला खां, चंद्रशेखर आजाद सहित दस वीर सपूतों ने ट्रेन पर धावा बोला। इसमें जर्मनी में बनी चार माउजर पिस्टल का इस्तेमाल किया गया था।

गोरे सैनिक की ‘बहादुरी’ 

इंडियन डेली टेलीग्राफ में खबर छपी की घटना में कई अंग्रेज व  हिंदुस्तानी मारे गए थे। यह खबर बिलकुल गलत थी। गाड़ी में जो गोरे और हिंदुस्तानी थे, उन लोगों ने हथियार का इस्तेमाल नहीं किया था। एक भी अंग्रेज नहीं मारा गया। हां, एक मुसाफिर आकस्मिक रूप से मारा गया था, जिस समय गोलियां चल रही थीं उस समय वह घटना को देखने के लिए ट्रेन से नीचे उतरा था। जबकि, जिस गोरे के मरने की बात कहीं जा रही थी वह पल्टन का मेजर था। जिस समय गोली चली रही थी, उसने डिब्बे के सारे दरवाजे बंद कर लिए थे। जब गाड़ी लखनऊ पहुंची तब यह गोरा अपने सुरक्षित स्थान से निकला।

यूरोपीय कैदियों जैसा व्यवहार 

काकोरी कांड राष्ट्रीय आंदोलन के लिए मील का पत्थर माना जाता है। इसकी कई विशेषताएं भी हैं। पहली बार काकोरी कांड में शामिल क्रांतिकारियों ने अदालत को क्रांतिकारी प्रचार कार्य के मंच के रूप में प्रयोग किया था। जिसे बाद में सरदार भगत सिंह व यतींद्रनाथ ने पराकाष्ठा तक पहुंचा दिया। मुकदमे की पैरवी करने वाले बाद में राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध हो गए। जैसे चंद्रभानु गुप्त व गोविंदवल्लभ पंत बाद में उप्र के मुख्यमंत्री बने। पंत जी बाद में भारत सरकार के गृहमंत्री भी रहे।

वकील मोहनलाल सक्सेना भी भारत सरकार के मंत्री बने। इसके अलावा क्रांतिकारियों ने बी क्लास कैदियों की तरह व्यवहार करने के लिए अनशन किया। ताकि, सरकार उनके साथ सी क्लास जैसा व्यवहार न करे। सरकार को उनकी बात माननी पड़ी और क्रांतिकारियों के साथ यूरोपीय कैदियों जैसा व्यवहार किया गया।