नई दिल्ली, जेएनएन। कालेधन के खिलाफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नोटबंदी के फैसले के बाद राजनीतिज्ञ से लेकर अर्थशास्त्री तक सभी अपने-अपने हिसाब से इस कदम के मायने और उसके नतीजों का आकलन कर रहे हैं। अर्थशास्त्री और पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह ने ‘द हिंदू’ में लिखे अपने संपादकीय में बड़ी ही बेबाकी से अपने विचार रखे हैं और नोटबंदी के फैसले की विस्तार से चर्चा की है।
प्रधानमंत्री ने जनता का भरोसा चकनाचूर किया
मनमोहन सिंह ने अपने संपादकीय लेख में कहा, ऐसा कहा जाता है, ‘पैसा एक विचार है जो आत्मविश्वास को प्रेरित करता है।’ 8 नवंबर 2016 की आधी रात को लगा एक झटका करीब एक बिलियन से भी ज्यादा लोगों के विश्वास को बर्बाद कर रख दिया है। प्रधानमंत्री मोदी के इस फैसले के चलते एक रात में ही 500 और 1000 रुपये के रूप में मौजूद देश की 85 फीसदी मुद्रा बेकार हो गई। एक जल्दबाजी के फैसले में प्रधानमंत्री ने करोड़ों भारतीयों के विश्वास को चकनाचूर कर के रख दिया जो ऐसा मानते थे कि भारत सरकार उनकी और उनके पैसों की रक्षा करेगी।
प्रधानमंत्री ने राष्ट्र को किए अपने संबोधन में कहा, ‘किसी देश के इतिहास में एक वक्त ऐसा आता है जब उसके विकास के लिए मजबूत और निर्णायक कदम की आवश्यकता पड़ती है।’ और इस फैसले के लिए पीएम ने दो महत्वपूर्ण कारण गिनाए। पहला कारण था- ‘सीमा पार से आ रहे आतंकियों की तरफ से किए जा रहे फर्जी नोटों के इस्तेमाल को रोकना’ और दूसरा कारण था- ‘भ्रष्टाचार और कालाधान पर अंकुश लगाना।’ ये दोनों ही उनके उद्देश्य सम्मानजक और पूरे दिल से माने जानेवाले हैं। फर्जी नोट और कालाधन ठीक उसी तरह से भारत के लिए खतरा हैं जैसा आतंकवाद और सामाजिक बंटवारा।
लेकिन, प्रधानमंत्री का 500 और 1000 के नोटों को अवैध करार देने से ठीक ऐसा लगता है जैसे सभी पैसे कालाधन है और सभी काला धन पैसों के रूप में है। यह वास्तविकता से काफी दूर है। आईये जानने की कोशिश करते हैं क्यों…
जीवन अस्तव्यस्त किया
देश के करीब 90 फीसदी श्रमिक अब भी अपनी मजदूरी पैसों में ही ले रहे हैं। इन लोगों में करोड़ों लोग खेती से जुड़े कामगार और निर्माणाधीन श्रमिक शामिल हैं। हालांकि, 2001 के बाद से ग्रामीण इलाकों में बैकों की शाखाएं करीब दोगुनी हो गई हैं, उसके बावजूद भारत के करीब 60 करोड़ गांव और शहर में रह रहे लोग अब भी बैकों से नहीं जुड़े हैं।
इन लोगों को अपना जीवन जीने के लिए नोटों की करेंसी ही एक मात्र जरिया है। इनकी दिनचर्या ही पूरी तरीके से करेंसी पर निर्भर है। ये सभी अपने पैसे नोट के रूप में ही बचाकर रखते हैं और जब ये रकम बड़ी होती है तो उसे 500 रुपये और 1000 रुपये के रूप में लेकर उसे अपने पास जमा करते हैं।
लेकिन, जब ऐसे नोटों को कालाधन करार दिया गया और करोड़ों गरीब लोगों की जिंदगियों को अधर में डाल दिया गया, ऐसे में यह एक बड़ी त्रासदी है। अधिकतर भारतीय वैध तरीके से अपनी आय, लेनदेन और बचाना भी पैसों में ही करते है। ऐसे में संप्रभु राष्ट्र की किसी भी लोकतांत्रिक तौर पर चुनी हुई सरकार का यह मौलिक कर्तव्य बनता है कि वे अपने नागरिकों के अधिकार और उनकी जीविका की रक्षा करे। हाल में प्रधानमंत्री ने नोटबंदी का जो फैसला लिया है वह मौलिक कर्तव्य का उपहास है।
काला धन वास्तविक चिंता
काला धन भारत में एक वास्तविक चिंता का विषय है। यह वो धन है जो कई वर्षों के दौरान गुप्त आय के स्त्रोत से कमायी गई है। गरीबों के विपरीत कालाधन जमा करनेवालों का धन कई रूपों में है जैसे जमीन, सोना और विदेशी लेनदेन। इससे पहले कई सरकारों ने पिछले दशकों में आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय की कार्रवाई और योजनाओं के माध्यम से अवैध धन को निकलवाने का प्रयास किया है।
लेकिन, ऐसी कार्रवाई सिर्फ उन्हीं लोगों पर की गई जिन पर शक होता था कि उनके पास काला धन जमा है न कि सभी नागरिकों पर। अतीत में मिले सबूत इस बात को प्रमाणित करते हैं कि अधिकतर गुप्त धन पैसे के रूप में है ही नहीं। सभी काला धन नोटों के रूप में नहीं है। ऐसी परिस्थिति में, प्रधानमंत्री के इस फैसले से उन लोगों की दिक्कतों को समझा जा सकता है, जो अपनी मजदूरी सिर्फ करेंसी के रूप में लेते हैं, जिन्हें इसके चलते गहरा आघात पहुंचा है।
जबकि, इस स्थिति को और भयावह बनाते हुए सरकार ने 2000 रुपये का नोट लाकर भविष्य में गुप्त धन को बनाने के तरीके और आसान कर दिए हैं। ऐसी बेतुकी नीति से इतिहास में न कभी काला धन पर अंकुश लग पाया है और न उसका प्रवाह रुक पाया है।