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कैलाशनाथ मंदिर: जहां न कोई पुजारी, न होती है पूजा-पाठ

महाराष्ट्र के औरंगाबाद में स्थित विश्वप्रसिद्ध एलोरा की गुफाएं भारतीय शिल्प कला का बेजोड़ नमूना हैं तो है ही यहां का कैलाशनाथ मंदिर भारत का एक प्रसिद्ध मंदिर भी है। औरंगाबाद से 30 किमी दूर स्थित एलोरा की गुफाओं को वर्ल्ड हेरिटेज के रूप में संरक्षित किया गया है, ताकि आने वाली पीढ़ी भी तकरीबन 1400 साल पुराने भारतीय कला की इस उत्कृष्ट कृति को देख सके. एलोरा की गुफाओं में 34 गुफाएं शामिल हैं. ये गुफाएं बेसाल्टिक की पहाड़ी के किनारे बनी हुई हैं. गुफाओं में स्थित कैलाशनाथ मंदिर को लयण-श्रृंखला के अनुसार राष्ट्रकूट वंश के शासक कृष्ण प्रथम ने 757 ई. से 783 ई. के मध्य निर्माण करवाया था। 16वीं शताब्दी में मुगल शासक औरंगजेब ने इस मंदिर को नष्ट करनेेे के लिए एक-दो नहीं कई बार आक्रमण कराया और सैनिकों ने लगभग 3 वर्ष तक नष्ट करने का पूर्ण प्रयास किया, लेकिन थोड़ी – बहुत क्षति के अलावा वे इस मंदिर को पूरी तरह से नष्ट करने में असफल रहे। गुफाओं में हिंदू, जैन और बौद्ध तीन धर्मों के प्रति आस्था के त्रिवेणी संगम का प्रभाव देखने को मिलता है. यहां की गुफाओं में की गई नायाब चित्रकारी व मूर्तिकला अपने आप में अद्भुत हैं. इसके साथ ही यहां की गुफाएं धार्मिक सद्माव की अनूठी मिसाल हैं. भगवान शिव को समर्पित इस मंदिर में न तो कोई पुजारी है और न ही यहां किसी प्रकार की पूजा-पाठ की कोई जानकारी मिलती है।

सुरेश गांधी

भारत के अलग-अलग हिस्सों में कई ऐसे मंदिर हैं जो अपने इतिहास और अपनी प्रचीन परंपराओं के साथ अपनी वास्तुकला, सुंदरता, समृद्धता के लिए भी प्रसिद्ध हैं। इन मंदिरों की वास्तुकला एवं खूबसूरती कुछ ऐसी है कि आज भी नवीन तकनीकी और विज्ञान की सुविधाओं के बाद भी इस प्रकार की वास्तुकला को हकीकत में उतार पाना बहुत ही मुश्किल है। ऐसा ही एक मंदिर है महाराष्ट्र के औरंगाबाद की एलोरा की गुफाओं में, जो अपनी खूबसूरती के पीछे कई सारे रहस्यों को दफन किए हुए है। ये मंदिर भारत के 8वें अजूबे से कम नहीं है। भगवान शिव का निवास माने जाने वाले कैलाश पर्वत के आकार की तरह ही इस मंदिर का निर्माण कराया गया है। कहते है 276 फुट लंबे और 154 फुट चौड़े इस मंदिर को एक चट्टान को काटकर और तराशकर किया बनाया गया है। ऊं के आकार में इस चट्टान को काटने मे 18 साल का समय लगा। इस चट्टान का वजन लगभग 40,000 टन बताया जाता है। आमतौर पर पत्थर से बनने वाले मंदिरों को सामने की ओर से तराशा जाता है, लेकिन 90 फुट ऊंचे कैलाश मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसे ऊपर से नीचे की तरफ तराशा गया है।

इस मंदिर में प्रवेश द्वार, मंडप तथा कई मूर्तियां हैं। दो मंजिल में बनाए गए इस मंदिर को भीतर तथा बाहर दोनों ओर मूर्तियों से सजाया गया है। मंदिर में सामने की ओर खुले मंडप में नंदी है और उसके दोनों ओर विशालकाय हाथी तथा स्तंभ बने हुए हैं। कैलाश मंदिर के नीचे कई हाथियों का निर्माण किया गया है और यह मंदिर उन्हीं हाथियों के ऊपर ही टिका है। यही कारण है कि मंदिर के निर्माण में दैवीय सहायता की भी संभावना जताई जाती है। मंदिर से जुड़ी एक और विचित्र बात यह है कि यह भगवान शिव को समर्पित है, लेकिन मंदिर में न तो कोई पुजारी है और न ही यहां किसी प्रकार की पूजा-पाठ की कोई जानकारी मिलती है। दावा है कि कैलाश मंदिर एक ही पत्थर से निर्मित विश्व की सबसे बड़ी संरचना है। सबसे खास बात यह है कि यह मंदिर हिमालय के कैलास मंदिर की तरह दिखता है। कहते हैं कि इसे बनवाने वाले राजा का मानना था कि अगर कोई इंसान हिमालय तक नहीं पहुंच पाए तो वो यहां आकर अपने अराध्य भगवान शिव का दर्शन कर लें। कैलाश मंदिर दिखने में इतना आकर्षक है कि यह सिर्फ भारत के लोगों को ही नहीं बल्कि दुनियाभर से पर्यटकों को आकर्षित करता है।

राजा कृष्ण प्रथम ने कराया मंदिर निर्माण
मंदिर की देखभाल करने वालों की मानें तो एलोरा के का निर्माण राष्ट्रकूट वंश के राजा कृष्ण प्रथम के द्वारा सन् 756 से सन् 773 के दौरान कराया गया। मंदिर के निर्माण को लेकर यह मान्यता है कि एक बार राजा गंभीर रूप से बीमार हुए तब रानी ने उनके स्वास्थ्य के लिए भगवान शिव से प्रार्थना की और यह प्रण लिया कि राजा के स्वस्थ होने पर वह मंदिर का निर्माण करवाएंगी और मंदिर के शिखर को देखने तक व्रत धारण करेंगी। राजा जब स्वस्थ हुए तो मंदिर के निर्माण के प्रारंभ होने की बारी आई, लेकिन रानी को यह बताया गया कि मंदिर के निर्माण में बहुत समय लगेगा। ऐसे में व्रत रख पाना मुश्किल है। तब रानी ने भगवान शिव से सहायता मांगी। कहा जाता है कि इसके बाद उन्हें भूमिअस्त्र प्राप्त हुआ जो पत्थर को भी भाप बना सकता है। इसी अस्त्र से मंदिर का निर्माण इतने कम समय में संभव हो सका। बाद में इस अस्त्र को भूमि के नीचे छुपा दिया गया। मंदिर की दीवारों पर अलग प्रकार की लिपियों का प्रयोग किया गया है जिनके बारे में आजतक कोई कुछ भी नही समझ पाया। ऐसा कहा जाता है कि अंग्रेजों के शासनकाल में मंदिर के नीचे स्थित गुफाओं पर शोधकार्य शुरू कराया गया, लेकिन वहां हाई रेडियोएक्टिविटी के चलते शोध को बंद करना पड़ा। इसके अलावा गुफाओं को भी बंद कर दिया गया जो आज भी बंद ही हैं। ऐसी मान्यता है कि इस रेडियोएक्टिविटी का कारण वही भूमिअस्त्र और मंदिर के निर्माण में उपयोग किए गए अन्य उपकरण हैं जो मंदिर के नीचे छुपा दिए गए थे।

औरंगजेब भी नहीं तोड़ पाया इस मंदिर को
इस्लामिक आक्रांता औरंगजेब ने इस मंदिर को नुकसान पहुंचाने का बहुत प्रयास किया। लेकिन छोटे-मोटे नुकसान के अलावा वह इसे किसी भी प्रकार की क्षति पहुंचाने में असफल रहा। इतिहासकारों के मुताबिक औरंगजेब के हजारों सैनिकों ने 1862 में इस मंदिर को तोड़ने के लिए 3 साल तक प्रयास किया। इसके बावजूद भी वो मंदिर को नहीं तोडने में असमर्थ रहे। क्योंकि औरंगजेब को इस बात की जानकारी हो चुकी थी कि वह इस मंदिर को नुकसान नहीं पहुंचा सकता और उसने तुरंत उन सिपाहियों को दूर हट जाने का आदेश दे दिया था। सिर्फ इतना ही नहीं तोपों से भी इस भव्य मंदिर को खंडित नहीं किया जा सकता है। जियोलॉजिकल डिपार्टमेंट सर्वे के खोजकर्ताओं का कहना है कि इस भव्य मंदिर को बनाने के लिए चट्टानों से 4 लाख टन पत्थर को काट कर हटाया गया होगा। एक अनुमान के मुताबिक अगर 7000 मजदूरों ने 12-12 घंटे भी काम किया होगा तो 18 साल में 4 लाख टन पत्थरों को निकालने के लिए हर वर्ष कम से कम 22 हजार टन पत्थरों को निकाला गया होगा। यानी 60 टन पत्थरों को हर दिन निकाला गया है। या यूं कहे 5 टन पत्थरों को हर घंटे निकाला गया होगा। इस बात पैर यकीन करना बहुत ही मुश्किल है क्योंकि सहस्त्र वर्ष पूर्व आधुनिक उपकरण तो हुआ ही नहीं करते थे और इतने कम समय में इतनी बारीकी से अद्भुद इमारत को बनाना लगभग ना के बराबर ही है।

शिल्पकला का बेजोड़ नमूना है एलोरा
एलोरा में कुल 100 गुफाएं हैं, जिसमे 34 गुफाएं ही लोगों के लिए खुली है। बाकी गुफाओं में लोगों का जाना वर्जित है। मंदिर गुफा नंबर 16 में है। इस मंदिर को 1983 में यूनेस्कों द्वारा ‘‘विश्व विरासत स्थल’’ का दर्जा मिला है। मंदिर की अद्भुत नक्काशी व वस्तुकला में पल्लव और चालुक्य शैली नजर आती है। पुरातनविदों के अनुसार इस मंदिर को बनाने में लगभग 150 वर्षों या इससे भी अधिक लगने चाहिए। जिस काल में इसका निर्माण किया गया उस समय न तो आधुनिक मशीने थी न कोई ऐसी कोई विशेष तकनीक, और आज के युग में भी इस प्रकार के मंदिर का निर्माण केवल 18 वर्षों में करना असंभव ही है। जियोलॉजिकल डिपार्टमेंट सर्वे के अनुसार उनके कई अधिकारी और खोजकर्ताओं का दावा किया है कि इस दिव्य मंदिर के नीचे एक पूरा शहर है। परन्तु वहां तक पहुंचने का रास्ता किसी को भी ज्ञात नहीं है। इस मंदिर की बारीकी से कि गई जांच के पश्चात पता चला कि शिल्पकारों ने इस पूरे मंदिर को सफेद रंग से ढक दिया था। ताकि ये कैलाश पर्वत की भांति नजर आए और इसकी बनावट भी इतनी अद्भुत है कि कैलाश पर्वत से ही मिलती है। जांच के बाद सबसे बड़ा रहस्य यह निकल कर आया है कि जिन्होंने निर्माण किया या जिन्होंने निर्माण करवाया उनके बारे में कोई भी पुख्ता सबूत नहीं है और इस मंदिर का संपूर्ण निर्माण किस दिन किस तारीख को संपन्न हुआ इस बात को भी कोई पुख्ता सबूत नहीं है। जिस कारण से इसकी कार्बन डेटिंग तकनीक द्वारा इसकी सही उम्र पता लगा पाना संभव नहीं है। यहां पूरा का पूरा एक ड्रेनिंग सिस्टम बना हुआ है बारिश के पानी को स्टोर करना, अतिरिक्त पानी को नालियों द्वारा निकालना। यहां छोटी से छोटी चीज को सुनियोजित तरीके से बनाया गया है।

एलोरा उत्सव
प्रत्येक वर्ष ठंड के मौसम में महाराष्ट्र टूरिज्म डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन एलोरा महोत्सव का आयोजन करती है. पहले कैलाश मंदिर का इस्तेमाल एलोरा महोत्सव के लिए किया जाता था. लेकिन अब औरंगाबाद में ही स्थित खूबसूरत सोनेरी महल में एलोरा महोत्सव को मनाया जाता है. सोनेरी महल डॉक्टर बाबा साहेब अंबेडकर मराठावाड़ा विश्वविद्यालय में स्थित है. इस महोत्सव में नृत्य और संगीत का अद्भुत संगम देखने को मिलता है. महाराष्ट्र टूरिज्म डेवलपमेंटकॉर्पोरेशन इस महोत्सव के लिए देशभर से नृत्य और संगीत की दुनिया के मशहूर कलाकारों को आमंत्रित करती है. इस उत्सव के आयोजन का मुख्य उद्येश्य देश की समृद्ध विरासत भारतीय नृत्य व संगीत कला को उजागर करना है. इस उत्सव में शास्त्रीय और लोक नृत्य और संगीत का आयोजन होता है, जिसे भारत के मशहूर कलाकार प्रस्तुत करते हैं.

कैसे पहुंचे
यदि आप भी दुनिया घुमने के शौकीन हैं तथा कलाप्रेमी हैं.तो एलोरा आपके लिए एक अच्छा पर्यटनस्थल है. एलोरा की गुफाओं में स्थित है कैलाश मंदिर, जो दुनिया भर में एक ही पत्थर की शिला से बनी हुई सबसे बड़ी मूर्ति है. यहां बौद्ध धर्म से जुड़ी शिल्पकलाओं और चित्रकलाओं से अटी पड़ी गुफाएं हैं. ये मानवीय इतिहास में कला के उत्कृष्ट अनमोल समय को दर्शाती है. कैलाश मंदिर, औरंगाबाद शहर से 30 किमी दूर स्थित है। मंदिर का सबसे नजदीकी हवाईअड्डा औरंगाबाद ही है जो दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु, हैदराबाद, तिरुपति, अहमदाबाद और तिरुवनंतपुरम जैसे शहरों से जुड़ा हुआ है। इसके अलावा रेलमार्ग से हैदराबाद, दिल्ली, नासिक, पुणे और नांदेड़ जैसे शहरों से भी औरंगाबाद पहुँचा जा सकता है। कैलाश मंदिर से औरंगाबाद रेलवे स्टेशन की दूरी लगभग 28 किमी है। महाराष्ट्र की सार्वजनिक परिवहन सेवा की बसों के माध्यम से राज्य के लगभग सभी बड़े शहरों से औरंगाबाद पहुँचने के लिए बस सेवा उपलब्ध है। पुणे से मंदिर की दूरी लगभग 250 किमी है। इसके अलावा मुंबई से कैलाश मंदिर लगभग 330 किमी की दूरी पर स्थित है।