भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-कर्म किए बिना न तो कोई पूर्व में परमात्मा को प्राप्त कर सका है और न भविष्य में कोई प्राप्त कर सकेगा। जो महापुरुष आत्मतृप्त हैं, आत्मस्थित हैं, उनके लिए किंचित भी कर्तव्य शेष नहीं है। इसलिए कर्म करने से न उन्हें कोई लाभ है और न कर्म छोड़ देने से कोई क्षति। फिर भी ऐसे महापुरुष लोकहित
के कार्य करते रहते हैं।
अनंतकाल से जनकादि जैसे ऋषि ने कर्म करके ही परमनैष्कम्र्य स्थिति को प्राप्त कर लिया। इसका आरंभ होता है प्रभु के गुणगान से, पारस्परिक भगवत्चर्चा से, पत्र-पुष्प-जल इत्यादि समर्पण से। यह आरंभिक कक्षा है।
मच्चिता मद्गतप्राणा बोधयंत: परस्परम्। कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च।।निरंतर मुझमें मन लगाने वाले मेरा गुणगान करते हुए प्रसन्न होते हैं, आपस में मेरी ही चर्चा करते हैं। शुरुआत यहीं से है। क्रमश:
स्तर उन्नत होने पर भगवान उठाने-बैठाने- चलाने लगते हैं। नियत कर्म अब प्रशस्त हो गया। इसके बाद कर्म एक साधना बन जाती है, जिसका परिणाम एक समान होता है।
परमहंस स्वामी अड़गड़ानंद कृत
श्रीमद्भगवद्गीता भाष्य ‘यथार्थ गीता’
से साभार