2024 से पहले देश की सियासत में बड़ा राजनीतिक बदलाव होने के असार है. बीजेपी लंबे समय से हार्ड हिंदुत्व की पॉलिटिक्स करती रही है, उसे इस राह पर चलने का सियासी फायदा भी मिला है. लेकिन बीजेपी के हार्ड हिंदुत्व को काउंटर करने के लिए प्रधानमंत्री का ख्वाब देख रहे नीतीश कुमार ने जाति आंकड़े जारी कर देश की राजनीति में हलचल मचा दी है। खास यह है कि उनके इस कदम की राहुल गांधी से लेकर पूरा विपक्ष यानी इंडिया गठबंधन स्वागत कर रहा है। जबकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विपक्ष के इस कदम को हिन्दुओं को बांटने वाला बताकर एक बार फिर न सिर्फ अपने हिन्दुत्व के एजेंडे को धार दी है, बल्कि देश की सबसे बड़ी आबादी को कल्याणकारी योजनाओं का जिक्र कर गरीब तबके को साधने की कोशिश की है। खासकर मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के उस बयान के हवाले से कांग्रेस या राहुल गांधी की दुमुही राजनीति का पटाक्षेप किया है जिसमें उन्होंने कहा था, देश के संसाधनों पर पहला अधिकार अल्पसंख्यकों या यूं कहे मुसलमानों का है. ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है क्या कांग्रेस मुसलमानों के अधिकारों को कम करना चाहती है? अगर आबादी के हिसाब से ही हक मिलने वाला है तो पहला हक किसका होना चाहिए? क्या सबसे बड़ी आबादी वाले हिंदुओं को जातियों में बांटना न्यायसंगत है? फिरहाल, ये ऐसे सवाल है जिसका जवाब 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले होने वाले पांच राज्यों के चुनाव परिणाम तय कर देंगे, लेकिन सच तो यही है विपक्ष ने मंडल बनाम कमंडल की सियासत के सहारे 2024 के परिणाम अपने पाले में लाने की उधेड़बुन में अभी से जुट गयी है।
–सुरेश गांधी
बेशक, अब जैसे-जैसे 2024 के लिए सियासी तस्वीर साफ हो रही है, वैसे-वैसे विपक्ष एवं सत्ता पक्ष अपना-अपना एजेंडा सामने रख रहे हैं. उसी कड़ी में नीतीश सरकार द्वारा जारी किए गए जातिवार जनगणना के मामले ने अब पूरे देश की सियासत को एक बार फिर से गर्मा दी है। विपक्षी दलों की ओर से अन्य राज्यों में भी ऐसी ही जनगणना की मांग की जा रही है। इस मांग के सहारे केंद्र की भाजपा सरकार को घेरने की कोशिश की जा रही है। यह अलग बात है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विपक्ष के इस चाल को पूर्व की यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बयान दुहराकर कांग्रेस को कठघरे में खड़ा कर दिया। प्रधानमंत्री यहीं नहीं रुके, उन्होंने लोगों को पूर्व पीएम मनमोहन सिंह का वो बयान याद दिला दिया जिसमें उन्होंने कहा था कि देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है। पीएम बोले, ’अब कांग्रेस कह रही है कि आबादी तय करेगी कि पहला हक किसका होगा। कांग्रेस की ये बातें सुनकर पूर्व पीएम मनमोहन सिंह जी क्या सोच रहे होंगे?’ पीएम मोदी का जो एक सवाल कांग्रेस को सबसे ज्यादा उहापोह में डालेगी, वह है, ’क्या कांग्रेस अब मुसलमानों के अधिकारों को कम करना चाहती है?’ पीएम ने यह भी कहा कि अगर आबादी के हिसाब से ही देश के संसाधनों का बंटवारा होगा, तो सबसे बड़ी आबादी वाले हिंदू आगे बढ़कर अपना सारा हक ले लें।
प्रधानमंत्री के बयानों से यह समझना मुश्किल नहीं है कि कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों ने हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की मिलीजुली खिचड़ी में जाति का जहर डालने की जो कोशिश की, उसकी काट में बीजेपी ने हिंन्दुत्व को ही आगे बढ़ाने की ठान ली है। बिहार जैसे प्रदेश में जहां पहले लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी और फिर नीतीश कुमार के नेतृत्व में 32 वर्षों से पिछड़ों का ही राज हो, वहां आज भी पिछड़ों के पिछड़ा रह जाने का राग अलापा जाए तो सवाल इन्हीं शासकों पर खड़े होंगे। ऐसे में संभव है कि फायदे की चाह में करवाई गई जाति जनगणना कहीं बीजेपी विरोधियों के गले की फांस न बन जाएं। आखिर, खुद पिछड़े वर्ग से आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने पिछले नौ सालों में पिछड़ा और अत्यंत पिछड़ा वर्ग को व्यापक रूप से बीजेपी के साथ जोड़ने में सफलता हासिल की है। इसकी गवाही लोकसभा चुनाव 2019 के परिणाम खुद ही दे रहे है, जिसमें उसे 44 फीसदी वोट पिछड़ी जातियों के मिले है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज जब यह कह रहे हैं कि सबसे बड़ी आबादी गरीबों की है तो इसके पीछे भी बहुत बड़ा संदेश छिपा है। वो यह बता रहे हैं कि गरीब-गरीब होता है, वो अगर जातियों में बिखर गया तो फिर उसके साथ वही होगा जो लंबे समय से होता आया है- पिछड़े, गरीब की रट लगा-लगाकर सत्ता सुख भोगते रहो। पीएम ने पिछड़े वर्ग के मतदाताओं ही नहीं, हर जाति-धर्म के गरीबों को बीजेपी से जोड़ने में बहुत कामयाब रही है तो इसका श्रेय उनकी सरकार की कल्याणकारी योजनाओं को जाता है। सवाल है कि क्या महज जाति जनगणना करवा देने से वह लाभार्थी वर्ग पाला बदल लेगा? सवाल यह भी है कि क्या जाति जनगणना का तीर निशाने से बिल्कुल चूक जाएगा? सवाल है कि क्या पीएम मोदी की गरीब-पिछड़े हितैषी की छवि विपक्ष की इस कवायद पर भी भारी पड़ जाएगी?
विपक्ष का हथियार बनेगा जाति जनगणना
बता दें, नीतीश सरकार ने महात्मा गांधी की जयंती के दिन राज्य के जातिगत सर्वे की रिपोर्ट को जैसे ही जारी किया, उसके तुरंत बाद राहुल गांधी ने ट्वीट कर लिखा कि बिहार की जातिगत जनगणना से पता चला है कि वहां ओबीसी, एससी और एसटी की आबादी 84 प्रतिशत है. राहुल गांधी ने लिखा, “केंद्र सरकार के 90 सचिवों में सिर्फ 3 ओबीसी हैं, जो भारत का मात्र 5 प्रतिशत बजट संभालते हैं. इसलिए भारत के जातिगत आंकड़े जानना ज़रूरी है. जितनी आबादी, उतना हक- ये हमारा प्रण है.” राहुल गांधी का ट्वीट राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव के ट्वीट से मेल खाता है. वे लिखते हैं, “जितनी संख्या, उतनी हिस्सेदारी हो.” लालू प्रसाद यादव ने कहा कि अगर विपक्षी गठबंधन ’इंडिया’ सत्ता में आता है, तो राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत जनगणना करवाई जाएगी. जाति सर्वे को लेकर जो रिपोर्ट हमारे सामने आई है, उससे यह साफ है कि 28 पार्टियों वाला विपक्षी गठबंधन ’इंडिया’ इसका इस्तेमाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सत्ता से बाहर करने के अपने चुनावी अभियान में ज़रूर करेगा.विपक्षी गठबंधन केंद्र सरकार को घेरने के लिए ओबीसी के प्रतिनिधित्व का मुद्दा उठाएगा और यह 2024 के चुनावों में बीजेपी की हिंदुत्व की राजनीति को मात देने में एक हथियार की तरह काम आएगा. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस मुद्दे पर विपक्षी गठबंधन में सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस का बिहार में आरजेडी, जेडीयू और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ पूरी तरह से तालमेल है. रिपोर्ट के मुताबिक़, बिहार की आबादी में 63.13 प्रतिशत ओबीसी हैं, जिसमें 36.01 प्रतिशत अत्यंत पिछड़ा वर्ग, 27.12 प्रतिशत पिछड़ा वर्ग शामिल हैं. इसके अलावा 19.65 प्रतिशत अनुसूचित जाति की आबादी है. सर्वे के मुताबिक़, राज्य में सामान्य जाति की जनसंख्या 15.52 प्रतिशत है, जिसमें ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार और कायस्थ शामिल हैं. इन जातियों के बारे में माना जाता है कि ये बड़े पैमाने पर बीजेपी का समर्थन करती हैं. हालांकि इस 15.52 प्रतिशत में मुसलमानों की करीब पांच प्रतिशत जातियां भी शामिल हैं, जिसका मतलब है कि बिहार में अपर कास्ट हिंदुओं की संख्या क़रीब दस प्रतिशत है. देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस का सबसे बड़ा चेहरा राहुल गांधी ने हिंदी पट्टी के उन राज्यों में ओबीसी की हिस्सेदारी को प्रमुख मुद्दा बनाया है, जहां चुनाव होने हैं. इन राज्यों में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान शामिल हैं. मध्य प्रदेश में अपनी हालिया चुनावी रैली में राहुल गांधी ने कहा था कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आई तो राज्य में जाति सर्वे करवाया जाएगा. विपक्षी गठबंधन ’इंडिया’ की पार्टियों के बीच यह आम धारणा है कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में फैली एक बड़ी आबादी को बिहार की मदद से समझा जा सकता है. ’इंडिया’ गठबंधन के समर्थक सवाल कर रहे हैं कि केंद्र सरकार ने आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को दस प्रतिशत आरक्षण क्यों दिया है, जबकि उनकी आबादी सिर्फ दस प्रतिशत है. समर्थकों का मानना है कि राज्य में ओबीसी की आबादी 63.13 प्रतिशत है, जबकि उन्हें आरक्षण सिर्फ 27 प्रतिशत मिल रहा है.
भाजपा का हार्ड हिंदुत्व?
बीजेपी सिर्फ हिंदू धर्म से जुड़े प्रतीकों को लेकर नहीं चलती बल्कि आक्रामक तरीके से हिंदुत्व के मुद्दे पर खड़ी नजर आती है. राम मंदिर के मुद्दे से लेकर मथुरा और काशी तक का बीजेपी न सिर्फ अपने भाषणों में जिक्र नहीं करती है बल्कि अपने घोषणा पत्र में भी शामिल करती है. बीजेपी को दूसरी पार्टियों से अपने आपको अलग दिखाने के लिए हिंदुत्व के एजेंडे पर आक्रमक चलना उनकी मजबूरी थी, क्योंकि उस समय सभी दल मुस्लिम वोटों के लिए सेकुलर पालिटिक्स कर रहे थे. ऐसे में बीजेपी ने हिंदुत्व को एक राजनीतिक टूल के तौर पर इस्तेमाल किया, इसके लिए चाहे नार्थ में अयोध्या, मथुरा, काशी हो या फिर दक्षिण में राम सेतु. बीजेपी ने हिंदुत्व की पालिटिक्स को धार देने के लिए हिंदू धर्म के प्रतीकों का बाखूबी तरीके से इस्तेमाल किया है. अयोध्या में राममंदिर के लिए लालकृष्ण आडवाणी ने रथ यात्रा निकालकर घर-घर इस मुद्दे को पहुंचाया तो पीएम मोदी ने बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी को कॉरिडोर का निर्माण कराकर संवारा. इसके अलावा गाय और धर्मांतरण को भी लेकर बीजेपी हमेशा से मुखर रही है. इस तरह बीजेपी ने खुद को हिंदू परस्त पार्टी के तौर पर स्थापित किया है, जिसके चलते उत्तर प्रदेश में एक भी मुस्लिम को विधानसभा और लोकसभा का टिकट नहीं देती. बीजेपी हार्ड हिंदुत्व विचारधारा वाले लोगों के पक्ष में मजबूती के साथ खड़ी रहती है.
कांग्रेस का सॉफ्ट हिंदुत्व?
कांग्रेस ने अपने राजनीतिक एजेंडे में बड़ा बदलाव किया है और बीजेपी के हार्ड हिंदुत्व के जवाब में सॉफ्ट हिंदुत्व का राह पर चलती दिख रही है. कांग्रेस कई राज्यों में सॉफ्ट हिंदुत्व पर फोकस कर बीजेपी के सामने राजनीतिक चुनौतियां खड़ी कर रही है. गुजरात से कांग्रेस का शुरू हुआ सॉफ्ट हिंदुत्व का कारवां राज्य दर राज्य आगे बढ़ता जा रहा है. कांग्रेस 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव में सॉफ्ट हिंदुत्व का प्रयोग कर चुकी, जहां राहुल गांधी मंदिर-मंदिर जाकर माथा टेक रहे थे और पूजा अर्चना कर रहे थे. यही ही नहीं खुद को जनेऊधारी ब्राह्मण भी बता रहे थे. राहुल गांधी से लेकर प्रियंका गांधी तक देश के अलग-अलग शहरों में मंदिर में पूजा अर्चना करते नजर आते हैं. यूपी में प्रियंका गांधी ने प्रयागराज के हनुमान मंदिर से लेकर काशी विश्वनाथ मंदिर में दर्जन करती हुई दिखती है. बीजेपी के एजेंडे में मुस्लिम वोटर नहीं है जबकि कांग्रेस मुस्लिमों के साथ भले ही न खड़ी हो, लेकिन उससे दूर भी नहीं जाना चाहती है. इसीलिए बीजेपी हार्ड और कांग्रेस सॉफ्ट हिंदुत्व की राजनीति करती है. 2014 लोकसभा चुनाव के बाद से देश का राजनीतिक पैटर्न पूरी तरह से बदल गया है. देश में अब बहुसंख्यक (हिंदू) समाज केंद्रित राजनीति हो गई है और इस फॉर्मूले के जरिए बीजेपी लगातार चुनाव जीत रही है. कांग्रेस लंबे समय तक 15 फीसदी मुस्लिम वोटों पर फोकस राजनीति करती रही है और 20 से 25 फीसदी बहुसंख्यक समुदाय के वोटों को लेकर सत्ता में आती रही है, लेकिन नरेंद्र मोदी के आने के बाद यह नेरेटिव बदल गया है. वह कहते हैं कि बीजेपी ने कांग्रेस को मुस्लिम परस्त र्पार्टी के तौर पर स्थापित कर दिया है. इसी टैग को हटाने और अपनी छवि को बदलने के लिए कांग्रेस ने सॉफ्ट हिंदुत्व की राजनीति की तरफ कदम बढ़ाया है ताकि बहुसंखक यानि हिंदू वोटों के बीच अपनी पैठ जमा सके. मुस्लिम वोट 2014 के बाद से आप्रसंगिक हो गया है. यही वजह है कि देश में कोई भी पार्टी मुस्लिमों के साथ उनके मुद्दों पर भी खड़े होने से परहेज कर रही है. हालांकि, देश में सिर्फ मुस्लिम वोटों के सहारे कुछ सीटें तो जीती जा सकती हैं, लेकिन सत्ता नहीं पाई जा सकती है. बीजेपी हिंदुत्व कार्ड खुलकर खेल रही है और विपक्षी दलों पर मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप लगाती रही है. बीजेपी मोदी और योगी जैसे हिंदुत्व के चेहरे को आगे कर चुनाव लड़ रही है, जिसके सामने विपक्षी दलों को मुस्लिम सियासत करने ममें बहुसंख्यक हिंदू वोटरों के ध्रुवीकरण होने का साफ खतरा दिख रहा है. यही वजह है कि कांग्रेस हो या फिर दूसरे क्षेत्रीय दल सॉफ्ट हिंदुत्व की राह पर चलनेके लिए मजबूर हुए हैं.
दो ध्रुवों में बंट गई देश की राजनीति
रामचरितमानस को लेकर बिहार से शुरू हुई सियासत उत्तर प्रदेश से होते हुए उससे आगे बढ़ गई है. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के बेटे व राज्य सरकार में मंत्री उदयनिधि स्टालिन ने तो सनातन धर्म पर ही हमला बोल दिया. सनातन धर्म की तुलना कोरोना, मलेरिया और डेंगू वायरस और मच्छरों से करते हुए उदयनिधि ने कहा कि ऐसी चीजों का विरोध ही नहीं बल्कि खत्म कर देना चाहिए. उदयनिधि के बयान पर सियासत अभी खत्म नहीं हुई कि जाति जनगणना से सियासत फिर से गरमा गई है. बता दें, बीजेपी हिंदुत्व की राजनीति का तानाबाना बुन रही है. बीजेपी और आरएसएस लंबे समय से अलग-अलग जातियों में बिखरे हुए हिंदुओं को हिंदुत्व के छतरी के नीचे एक साथ लाने की कोशिशों में जुटी हुई है. बीजेपी को इस दिशा में काफी हद तक सफलता भी हाथ लग चुकी है. वहीं, मंडल पॉलिटिक्स से निकले क्षत्रप सामाजिक न्याय के सहारे जातीय सियासत को धार दे रहे हैं, जिसके लिए वो रामचरितमानस से लेकर सनातन धर्म तक पर भी सवाल खड़े कर रहे हैं. ये सारी कवायद यूं ही नहीं हो रही है बल्कि उसके पीछे राजनीतिक दलों के सियासी निहितार्थ भी हैं. देखा जाएं तो इस देश की कुल आबादी में हिंदुओं की संख्या करीब 110 करोड़ है और इनमें भी 80 फीसदी से ज्यादा लोग सनातन धर्म के मानने वाले हैं. हिंदुत्व की पॉलिटिक्स की बात करें तो उत्तर भारत के राज्यों में खूब फली-फूली है जबकि दक्षिण के राज्यों में सामाजिक न्याय की सियासत हावी रही है. हालांकि, 90 के दशक में हिंदी बेल्ट वाले राज्यों में दलित और ओबीसी की राजनीति का उभार हुआ, लेकिन नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से धीरे-धीरे हाशिए पर पहुंच गई है. उत्तर भारत में दलित समुदाय के बीच राजनैतिक चेतना जगाने वाले कांशीराम के निधन के बाद मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं, लेकिन बसपा की सियासत को सहेजकर नहीं रख सकीं. इसी तरह महाराष्ट्र से लेकर बिहार तक दलित सियासत खत्म होती नजर आ रही है. मुलायम सिंह यादव ने यूपी में ओबीसी की राजनीति को खड़ा किया, लेकिन उनके बेटे अखिलेश यादव संभालकर नहीं रख सके. बिहार में कास्ट पॉलिटिक्स का दबदबा अभी भी बना हुआ है, जिसे बीजेपी यूपी के तर्ज पर तोड़कर हिंदुत्व की राजनीतिक को स्थापित करने की कोशिशों में जुटी है.
हिंदुत्व है भाजपा का सबसे बड़ा हथियार
2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से देश का राजनीतिक पैटर्न पूरी तरह से बदल गया है. देश में अब बहुसंख्यक (हिंदू) समाज केंद्रित राजनीति हो गई है और बीजेपी इस फॉर्मूले के जरिए लगातार चुनावी जीत भी मिल रही है. आरएसएस और बीजेपी को जातियों में बिखरे हुए हिंदुओं को एकजुट करने में बड़ी मशक्कत करनी पड़ी है तब कहीं जाकर उसे इस दिशा में सफलता मिली है. संघ और बीजेपी की यही कोशिश है कि अलग-अलग जातियों में बिखरे हुए लोगों को हिंदुत्व के नाम पर एकजुट रखा जाए, जिसके लिए उन्हें यह लगातार यह बताया जा रहा है कि पहले हिंदू हो उसके बाद दलित-ओबीसी-सवर्ण हो. कैसे तमाम हिंदुओं को एक प्लेटफार्म पर लाया जा सके. इसके लिए संघ शुरू से ही काम कर रहा है. संघ यह मानता रहा है कि भारत में रहने वालों की अपनी-अपनी परंपराएं और रिवाज अलग-अलग हैं, लेकिन वो सभी सनातनी हैं. यहां मूर्तिपूजक भी हिंदू है और निराकारपंथी भी हिंदू हैं. आस्तिक भी हिंदू है और नास्तिक भी हिंदू है. संघ प्रमुख तो मुसलमानों को भी हिंदू बताते हुए कहते रहे हैं कि उनके पूर्वज हिंदू ही रहे हैं. इस तरह सभी हिंदू हैं और हिंदू धर्म की मुख्य धारा सनातनपंथी ही. इस तरह संघ लार्जर प्लान पर काम कर रहा है और अब इस दिशा में कहीं जाकर उसे सफलता मिली है तो राजनीति में उसी का लाभ बीजेपी को मिल रहा है. भाजपा और संघ ने हिंदुओं की तमाम जातियों को एक करने का काफी हद तक सफल रही है, जिससे कास्ट पॉलिटिक्स पर संकट गहरा गया है.
राम मंदिर
यूपी में 2024 चुनाव से पहले राम नाम राजनीति की पटकथा लिखी जा चुकी है। भाजपा और सपा अपने-अपने वोटर्स को साधने का प्लान बना रही हैं। दोनों पार्टियां दांव पर दांव चल रही हैं। सपा की सामाजिक न्याय के जरिए 45 फीसदी ओबीसी वोटर्स पर नजर है, तो भाजपा 85 फीसदी हिंदू वोटर्स को हिंदुत्व के जरिए एकजुट करने की जुगत में है। मतलब, भाजपा 85-15 फॉर्मूले वाले एजेंडे पर काम कर रही, जबकि सपा 60-40 (45 ओबीसी$40मुस्लिम व अन्य) के फॉर्मूले पर फोकस कर रही है। सपा रामचरितमानस और जातिगत जनगणना के जरिए दलित-पिछड़े समीकरण को साध रही है। इस वर्ग से यूपी में अकेले 45 फीसदी वोटर्स आते हैं। भाजपा, सपा के गेम को पलटने की फिराक में हिंदुत्व के मुद्दे को धार दे रही है। इसलिए वो यूपी के 85 फीसदी हिंदू वोटर्स को साधने के लिए दुर्गा सप्तशती और रामायण पाठ का दांव चला है। वहीं, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण कार्य भी तेजी से चल रहा है। मंदिर में जनवरी 2024 में भगवान रामलला भी विराजमान हो जाएंगे। भाजपा लोकसभा चुनाव से पहले राम मंदिर को कैश कराने की तैयारी कर रही है। क्योंकि भाजपा हार्ड हिंदुत्व और सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले से ही यूपी में लगातार चार चुनाव जीत चुकी है।
’सॉफ्ट बनाम हार्ड हिंदुत्व’
बीजेपी अयोध्या में भव्य राम मंदिर के उद्घाटन से उम्मीदें पाले हुए है तो राजस्थान से लेकर मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ तक हिंदुत्व को लेकर अलग-अलग रणनीति अपना रही है. कमलनाथ के मंच पर कथावचक, बजरंग सेना की उपस्थिति और जय श्रीराम का उद्घोष तो रामगमन पथ पर भूपेश बघेल के बढ़ते कदम बताते हैं कि 2024 के सियासीरण में उतरने वाली कांग्रेस पहले की कांग्रेस से अलग वर्जन वाली होगी, जिसमें हिंदुत्व का पुट तो होगा होगा ही सॉफ्ट हिंदुत्व पर अलग रणनीति होगी. ऐसे में सवाल उठता है कि ’सॉफ्ट बनाम हार्ड हिंदुत्व’ की सियासत में आखिर क्या फर्क है?
जाति जनगणना बनेगा मुद्दा
बिहार में जाति जनगणना की रिपोर्ट सार्वजनिक होने के बाद सियासत का दौर भी शुरू हो चुका है. 2024 लोकसभा चुनाव से पहले जाति जनगणना अब सभी राज्यों में बड़ा चुनावी मुद्दा बनने वाला है. आंकड़े जारी होने के साथ बीजेपी हमलावर है. इसके साथ ही ओबीसी अति पिछड़ा वर्ग की राजनीति और प्रतिनिधित्व की बहस फिर से जिंदा हो गई है. एक बात तो तय है कि जाति जनगणना का असर लोकसभा चुनाव में सीटों के लिहाज से पड़े या न पड़े लेकिन यह चुनाव प्रचार में अहम मुद्दा जरूर बनने वाला है. कांग्रेस समेत लगभग सभी विपक्षी दल केंद्र सरकार से जाति जनगणना की मांग कर रहे. केंद्र सरकार पर भी अब दबाव बढ़ेगा और महिला आरक्षण मुद्दे पर भी कांग्रेस, आरजेडी समेत दूसरे विपक्षी दलों ने कोटा के अंदर कोटा की मांग की थी. ऐसे में जाति जनगणना एक ऐसा शब्द है जो अगले लोकसभा चुनाव तक राजनीतिक मंचों से बार-बार उछाला जाएगा. जाति जनगणना रिपोर्ट के जारी होने के साथ ही जाति आधारित राजनीति की हवा फिर से तेज होने वाली है. आरजेडी सुप्रीमो ने आंकड़े जारी होते ही कह दिया है कि आबादी के मुताबिक प्रतिनिधित्व लाने के लिए सही नीतियों को लागू करने का वक्त आ गया है. देशभर में विपक्षी गठबंधन की गोलबंदी के लिहाज से भी नीतीश कुमार ने लीड ले ली है. ऐसे में देखना है कि पीएम नरेंद्र मोदी और बीजेपी अब इसकी काट कैसे खोजते हैं और 2024 लोकसभा चुनाव के लिए क्या रणनीति अपनाते हैं.
आबादी के अनुपात में आरक्षण की होगी मांग
आबादी के अनुपात में आरक्षण की मांग ओबीसी और दलित नेता लंबे समय से कर रहे हैं. अब बिहार में जातिवार जनगणना के आंकड़े हैं और इस मांग को ठोस आधार भी मिल गया है. प्रदेश में सवर्ण आबादी महज 15 फीसदी से कुछ ज्यादा है. दूसरी ओर ओबीसी और अति पिछड़ा वर्ग की कुल आबादी 63 परसेंट है. अब ऐसे में आबादी के मुताबिक आरक्षण और आरक्षण बढ़ाने की मांग जोर पकड़ सकती है. संख्या बल के लिहाज से यही बड़ा वोट बैंक भी है और इसकी काट खोजना बीजेपी के लिए खासा मुश्किल हो सकता है. जाति जनगणना की रिपोर्ट जारी होने के बाद बीजेपी ने नपा-तुला रिएक्शन दिया है. बिहार बीजेपी अध्यक्ष सम्राट चौधरी ने कहा कि हमने सर्वे का हमेशा समर्थन किया है लेकिन यह रिपोर्ट आधी-अधूरी है. बीजेपी ने रिपोर्ट के जरिए नीतीश कुमार पर निशाना भी साधा है. अब सवाल यह है कि बीजेपी और केंद्र सरकार 2024 चुनावों और ओबीसी के बड़े वोट बैंक को देखते हुए अपना स्टैंड क्या रखती है. जो भी हो लेकिन लोकसभा चुनाव से पहले विपक्ष के हाथ एक बड़ा मुद्दा जरूर लग गया है. विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने से उठा राजनीतिक बवंडर राजनीतिक परिदृश्य से ओझल भले ही हो चुका, लेकिन आंच अब तक महसूस की जाती है। आने वाले दिनों में नौकरियों के साथ राजनीति में आबादी के हिसाब से ओबीसी आरक्षण का कोटा लागू करने की मांग तूल पकड़ सकती है। इस मुद्दे पर राय अलग-अलग हो सकती है कि राजनीति में जातीय गोलबंदी होनी चाहिए अथवा नहीं। लेकिन, इस तरह की गोलबंदी से नुकसान तो समाज को ही झेलना पड़ता है। आरक्षण की समीक्षा की मांग अनेक बार उठ चुकी है, लेकिन मुद्दा इतना संवेदनशील है कि कोई भी सरकार ऐसा करने से बचना चाहती है। यहां सवाल यह भी उठता है कि जातीय सर्वेक्षण के आंकड़े सिर्फ बिहार तक ही सीमित क्यों रहें? क्या समूचे देश में जातीय जनगणना नहीं होनी चाहिए? और यदि हां, तो क्यों नहीं इसके लिए सर्वसम्मति बनाने के प्रयास किए जाएं? मुद्दा जब इतना संवेदनशील हो तो सिर्फ राजनीतिक लाभ-हानि से ऊपर उठने की जरूरत है। इसके लिए जरूरी है कि केंद्र सरकार अपनी तरफ से पहल करे। सभी राज्य सरकारों के साथ राजनीतिक दलों को विश्वास में लेकर ऐसा फार्मूला तलाशना चाहिए जो सभी को स्वीकार्य हो। ध्यान यह भी रखना है कि हर मुद्दा आरोप-प्रत्यारोप की चाशनी में डूबा नहीं हो। देश में अनेक मुद्दे सालों से विवादों के झूले में झूल रहे हैं। सभी दल खुले मन के साथ एक टेबल पर बैठें तो इनका समाधान निकल सकता है। आवश्यकता एक-दूसरे पर भरोसा करने की है। बिहार के जातिगत सर्वेक्षण के आंकड़े आने के साथ ही इसका राजनीतिक श्रेय लेने की होड़ तेज होने वाली है। लेकिन, भाषा का संयम बना रहे। ऐसे बयान नहीं दिए जाने चाहिए, जिससे टकराव की आशंका पैदा होती हो।
पिछड़ी जातियों के लिए गठित हुआ था मंडल कमीशन
1979 में पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के लिए मंडल कमीशन बनाया गया. इस आयोग ने ओबीसी वर्ग को आरक्षण दे.ने की सिफारिशें की. आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि देशभर में ओबीसी की संख्या 52 प्रतिशत है. उन्हें सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण दिया जाए. बताते चलें कि मंडल कमीशन की अध्यक्षता बीपी मंडल ने की थी. आयोग ने साल 1980 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की और 1990 में इसे लागू किया गया था. आयोग की रिपोबताते चलें कि मंडल कमीशन की अध्यक्षता बीपी मंडल ने की थी. आयोग ने साल 1980 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की और 1990 में इसे लागू किया गया था. आयोग की रिपोआयोग की रिपोर्ट के विरोध में देशभर में विरोध-प्रदर्शन हुए थे. 2011 में कांग्रेस की यूपीए सरकार ने भी सामाजिक-आर्थिक जनगणना करवाई थी, लेकिन इसके आंकड़े आंकड़े जारी नहीं किए थे. कहा जाता है कि मंडल कमीशन को लागू करने के बावजूद वीपी सिंह कभी पिछड़ी जातियों के नेता नहीं बन पाए और अपने सवर्ण समाज की नजर में पूरी उम्र खलनायक बने रहे।