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ओबीसी माया से बनाया दूरी, बसपा मूल विचार से भटकी, बीजेपी को मिला लाभ

IMG_20161114_184553-225x300अशोक कुमार गुप्ता , लखनऊ । उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में पिछड़ा वर्ग मायावती से दूरी बना लिया है क्योकि  बहुजन समाज पार्टी मुख्य रूप से दलित-मुस्लिम गठजोड़ के सहारे सत्ता पाने की कोशिश कर रही है. मायावती का मुस्लिम कार्ड हिन्दू वोटो का ध्रुविकरण करने में भाजपा को खासी मदद किया .

मायावती ने  106 ओबीसी उम्मीदवारों को टिकट दिया लेकिन कहीं भी मायावती उनको मुसलामानों की तरह रिझाती-लुभाती नहीं दिखतीं. यही हालत पिछड़े वर्ग के वोटरों की भी है, जो बीएसपी के सामाजिक न्याय की लड़ाई में सबसे आगे होने के बावजूद उसका समर्थन करने में कुछ हिचक रहे हैं.

 

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फ़ाइल फोटो

सरकार बनने पर मायावती की प्राथमिकता दलितों के बाद सवर्ण ही हो जाते हैं, ओबीसी नहीं, जबकि बीएसपी के निर्माण के समय ही 85 प्रतिशत बनाम 15 प्रतिशत और जिसकी जितनी संख्या भारी – उसकी उतनी भागीदारी का नारा दिया गया था.

मायावती का दिन प्रतिदिन ग्राफ गिरता जा रहा है इसके पीछे कई कारण है जिसमे मुख्य वजह स्वर्ण जातियो को सत्ता मिलने के बाद ज्यादा तबज्जो देना है . इस चुनाव में मायावती ने दलित -मुस्लिम कार्ड तो खेला लेकिन उससे मुस्लिम समुदाय दो राह पर चल दिया आखिरी वक्त तक कोई समझ नही पाया की बीजेपी को किस पार्टी से लड़ाई है इसी भ्रम में मुस्लिम समाज का वोट सपा और बसपा में बट गया . अगर वास्तव में ऐसा हुआ है तो बीजेपी पूर्ण बहुमत से यूपी किस्त्ता हासिल कर लेगी .

पूर्वांचल जिसने जीता सरकार उसी दल की बनती है वैसे पूर्वांचल के मुस्लिम समाज सपा के पक्ष में मतदान किया इसके पीछे भी पीएम ने हिंदूओ की दुखती नब्ज पर यह कहकर हाथ रखा की कब्रिस्तान और श्मशान बनाने में भेदभाव हुआ बिजली रमजान में आती है तो दिवाली में क्यों नही मिलती ने हिन्दू वोटो का ाध्रुविक्र्ण और चुनाव सीधे यादव और मुस्लिम समीकरण की तरफ बढ़ गया क्योकि पूर्वांचल यादव बाहुल्य है इसलिए मुस्लिम सीधे सपा के पक्ष में मतदान किया मायावती के मुस्लिम कार्ड से दलित भी बसपा से छिटके है .

यूपी  चुनावों में भी मुस्लिमों को एसपी-कांग्रेस गठबंधन की तरफ रोकने के लिए बीएसपी ने मुस्लिमों को 98 टिकट दे डाले. हालांकि दलितों को उन्होंने करीब उतने ही टिकट दिए जितनी सीटें उनके लिए आरक्षित थीं. ओबीसी तबके को केवल 106 ही टिकट दिए जबकि आबादी में बहुत कम होने के बावजूद सवर्णों को 113 टिकट बीएसपी से मिल गए.

बीएसपी चाहती तो खासकर कुर्मियों को अपनी ओर लुभा सकती थी, लेकिन टिकट वितरण में इस तबके को तवज्जो न देकर उन्होंने ये मौका गंवा दिया.

इस समय बीएसपी में कोई बड़ा और प्रमुख कुर्मी नेता भी नहीं है जिसके नाम पर कुर्मी वोट बीएसपी को मिल सकें. कुर्मी वोट जेडीयू और नीतीश कुमार की तरफ आशा भरी नजरों से देख रहे थे, लेकिन उनको उत्तर-प्रदेश में पैर जमाने का ही मौका नहीं मिल सका. ऐसी स्थिति में कुर्मी वोटों का बड़ा हिस्सा एसपी-कांग्रेस गठबंधन और भाजपा की ओर जाता दिख रहा है.

यादवों और कुर्मियों के बाद ओबीसी में तीसरी प्रभावी जाति कुशवाहा, मौर्य सैनी आदि जातियों की है. कुशवाहा वोट बीएसपी को मिलते भी रहे हैं, लेकिन ओबीसी समुदाय पर ध्यान न देने की आदत के चलते बीएसपी ने इसे भी इस बार गंवा दिया.

मायावती के समर्थक

मायावती ने कुशवाहा और लोधी जातियों को हमेशा से नजरअंदाज किया

कुशवाहा समुदाय में एक तो पूर्व स्वास्थ्य मंत्री बाबूसिंह कुशवाहा के साथ मायावती के व्यवहार को लेकर थी ही. रही-सही कसर बीजेपी ने अपनी सोशल इंजीनियरिंग में लोध समुदाय के बजाय कुशवाहा और मौर्य समुदाय को महत्व देकर पूरी कर दी.

बहुजन समाज पार्टी में बड़ी हैसियत रखने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य का भी निकलना इसी समय हुआ, और उसके कुछ ही समय पहले केशव प्रसाद मौर्य को भाजपा प्रदेशाध्यक्ष बना ही चुकी थी.

उधर बाबूसिंह कुशवाहा जन अधिकार मंच बनाकर मायावती के हाथों अपने अपमान का बदला लेने के लिए निकल ही पड़े थे. ऐसी स्थिति में कुशवाहा समाज का बसपा से चल रहा पुराना तालमेल भी मिट सा गया.

दलित विचारकों का योगदान

बहुजन समाज पार्टी से ओबीसी की दूरी बढ़ाने में बीएसपी समर्थकों और दलित विचारकों का भी बड़ा योगदान है. कुछ अति-उत्साही बीएसपी समर्थक तो हर समय सवर्णों से ज्यादा ओबीसी को जातिवाद और ब्राह्मणवाद का दोषी बताते रहते हैं. ओबीसी को हर समय ब्राह्मणवाद की पालकी ढोने वाला, दलितों पर अत्याचार करने वाला और अपराधी बताते रहते हैं.

चंद्रभान प्रसाद जैसे दलित चिंतक तो ओबीसी को उग्र-शूद्र तक लिखने लगे थे और दलित-सवर्ण गठजोड़ की पुरजोर वकालत करने लगे थे. शूद्र का ऐतिहासिक अर्थ जो भी रहा हो, लेकिन आम ओबीसी प्रचलित अर्थ में शूद्र को एससी ही मानता है और शूद्र या उग्र शूद्र कहे जाने पर अपमानित महसूस करता है.

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मायावती की राजनीति काफी हद तक दलित चिंतकों की सोच से प्रेरित है
बीएसपी सरकार के पिछले कार्यकाल में ऐसी शब्दावली का प्रयोग जान-बूझकर बार-बार किया गया, जिससे ओबीसी के मन में ये ख्याल बना ही रहा कि बीएसपी आखिरकार उनकी पार्टी है नहीं.

बीएसपी को 2007 में मिले पूर्ण बहुमत का श्रेय भी दलितों और सवर्णों को ही दिया गया और सत्ता में प्रमुखता भी इन्हीं तबकों को मिली. ओबीसी की बड़ी आबादी ने बीएसपी को वोट दिया लेकिन बीएसपी नेतृत्व ने उसका कोई खास नोटिस नहीं लिया.

ओबीसी के कुछ गिने-चुने उन्हीं नेताओं को महत्व मिला जो पहले से ही मायावती की गुडबुक में थे. इस बार भी दलित-मुस्लिम एकता के नारे के कारण पहले से तय माना जा रहा है कि बीएसपी सरकार अगर बनती है तो इसका श्रेय दलितों और मुस्लिमों को ही मिलना है.

और ओबीसी के हाथ एक बार फिर से कुछ नहीं आने वाला.