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यूपी का रण : अपनों से जूझने में बीता अखिलेश का कार्यकाल, पिता की पाठशाला भी बनी बाधा

एक तरफ पिता थे…। …तो दूसरी ओर कई चाचा। कुछ ऐसे थे जो पिता के दोस्त थे…। अखिलेश मुख्यमंत्री तो बना दिए गए, पर मुलायम सिंह के कुनबे और उनके साथियों में कोई भी शायद मन से उन्हें मुख्यमंत्री स्वीकार ही नहीं कर पाया। इस वास्तविकता को मान ही नहीं सका कि अखिलेश अब सिर्फ उनके पुत्र, भतीजे ही नहीं है, देश में आबादी के लिहाज से सबसे बड़े प्रदेश के मुख्यमंत्री भी हैं। इस नाते उनके सांविधानिक दायित्व भी हैं। जनता की कसौटी पर उनकी ही साख, निर्णय क्षमता और प्रशासनिक कुशलता की परीक्षा होनी है।  नतीजा, कुनबे और पिता के दोस्तों के दबाव में जो हुआ, जैसा व्यवहार इन सबने किया, उसका सारा नुकसान अखिलेश के खाते में गया। वह कार्यकाल के ज्यादातर वक्त स्वेच्छा से कोई फैसला ले ही नहीं सके। जब तक वह इससे भविष्य में आने वाले संकट को समझते, शायद बहुत देर हो चुकी थी। उन्होंने जो राह चुनी वह मुलायम परिवार में बिखराव के रूप में सामने आई, जिसने सपा की पराजय की पटकथा लिख दी।

 
शायद मुख्यमंत्री बनने के बावजूद परिवार व पिता के करीबी उन्हें पहले वाला ‘टीपू’ ही समझते रहे। वे इसे मन से मान नहीं पाए कि ‘टीपू’ अब सुल्तान है। लिहाजा डांट-डपट लगाने, गुस्सा दिखाने को अपना अधिकार समझते रहे। वरिष्ठ पत्रकार वीरेंद्र नाथ भट्ट कहते हैं कि हो सकता है कि आम भारतीय परिवार के संस्कार अखिलेश को मुख्यमंत्री बनने के बाद भी घर के बड़ों और पिता के साथियों की डांट-डपट और व्यवहार पर कोई प्रतिक्रिया सार्वजनिक करने से रोकते रहे हों, लेकिन इससे उनकी छवि कई रिमोट से संचालित होने वाले मुख्यमंत्री की बन गई। अखिलेश सरकार को जिस तरह कुछ फैसले बदलने पड़े, इनकार करने के बाद भी अनचाहे निर्णय लेने पड़े, उससे भी यही साबित होता है।

सत्ता के कई केंद्रों के संदेश का संकट : नौकरशाही हो या सत्ता के भौंरे, उन्हें तो कोई समानांतर सत्ता चाहिए ही। वही हुआ भी। अखिलेश मुख्यमंत्री रहे, लेकिन फैसलों के पीछे किसी और के होने का संदेश गया। अच्छे कामों का श्रेय उन्हें मिला और बुरे कार्यों की बदनामी अखिलेश के हिस्से आई। अखिलेश ने किसी अधिकारी को हटाया या किसी मंत्री पर कार्रवाई की तो वह उनके पिता मुलायम या किसी अन्य सत्ता के केंद्र के पास पैरवी करके अपने विरुद्ध कार्रवाई रुकवाने में सफल रहा। इस सिलसिले में गायत्री प्रसाद प्रजापति उदाहरण हैं। इच्छा नहीं होने के बावजूद अखिलेश को उन्हें कैबिनेट मंत्री बनाना पड़ा था।

मुलायम की पाठशाला भी बनी बाधा
मुलायम ने जिस तरह सार्वजनिक रूप से यह कहा कि सरकार अपने लक्ष्यों पर काम नहीं कर रही है…। सरकार इस तरह ढिलाई से नहीं चलती…। सिर्फ शिलान्यास से कुछ नहीं होता, अधिकारियों को बताओ कि इतने दिन में काम करके दो…। अखिलेश के मुख्यमंत्री बनने के बावजूद मुलायम सिंह यादव का पिता का रुतबा, सार्वजनिक रूप से इस तरह डांटना-डपटना, अखिलेश के व्यक्तित्व के लिए चुनौती बन गया। लोहिया पार्क में एक कार्यक्रम में जब मुलायम सिंह ने अखिलेश को कुछ कहा तो वह हंसते हुए बोले, मेरी यह समझ में ही नहीं आता कि नेता जी कब पिता के रूप में डांटते हैं और कब पार्टी के अध्यक्ष के रूप में।

हुई थी साढ़े चार मुख्यमंत्रियों की सरकार की टिप्पणी
प्रो. रामगोपाल का तो अखिलेश पर मुख्यमंत्री पद दिलाने के लिए दबाव डालने का एहसान था ही। वह तो सरकार के एक तरह से मार्गदर्शक होने के कारण सत्ता में अपनी हनक-धमक रखते ही थे। मुलायम एवं शिवपाल तो उनके पिता और चाचा ही थे। ऊपर से आजम का रवैया…। उस समय इस सबने प्रदेश में साढ़े चार मुख्यमंत्रियों की सरकार होने का संदेश देकर अखिलेश की छवि के लिए बड़ी चुनौती खड़ी की। विधानपरिषद में तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने कई बार साढ़े चार मुख्यमंत्रियों की सरकार का आरोप लगाया था।

आजम ने चलाई समानांतर सरकार
सपा सरकार में संसदीय कार्यमंत्री मो. आजम खां की चाल और बयानों ने भी अखिलेश के लिए कम मुसीबत नहीं खड़ी की। आजम ने पहले कैबिनेट की कई बैठकों से गायब रहकर विपक्ष को अखिलेश पर हमले का मौका दिया। संसदीय कार्यमंत्री होने के बावजूद शुरुआत में वह विधानसभा सत्र से पहले होने वाली सर्वदलीय बैठकों में नहीं शामिल हुए। एक बार सदन में मुजफ्फरनगर दंगे पर बहस चल रही थी। मुख्यमंत्री बोलने के लिए खडे़ हुए तो आजम ने उन्हें हाथ पकड़कर बैठाने की कोशिश की। पर, अखिलेश ने उनका हाथ झटककर अपनी नाराजगी व्यक्त की। अखिलेश ने यह कहकर कि इस तरह की घटनाओं से उनकी छवि प्रभावित होती है, उन्होंने एक तरह से चंद शब्दों में यह जाहिर कर दिया था कि वह मुजफ्फरनगर जैसी घटनाओं से आहत हैं। उन्हें आजम की भूमिका पर भी नाराजगी है।

साल 2016 में जनेश्वर मिश्र पार्क में आयोजित सपा के एक कार्यक्रम में जिस तरह अखिलेश और शिवपाल के बीच मंच पर तीखी बहस हुई, उसने यह बता दिया था कि सामने खड़े चुनाव की चुनौतियों के मद्देनजर अखिलेश काफी परेशान हैं। वह इसे ठीक करना चाहते हैं। उन्हें समझ में आ चुका है कि पुत्र व भतीजे की भूमिका से चुनाव में काम नहीं बनेगा। उन्हें सक्षम मुख्यमंत्री के रूप में मैदान में उतरना पड़ेगा। शायद इसीलिए बाद के दिनों में उन्होंने उन तमाम अधिकारियों को पदों से हटाया, कुछ मंत्रियों की बर्खास्तगी की जिनकी निष्ठाएं अलग-अलग मौजूद सत्ता के केंद्रों से थीं। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। नतीजा संगठन में संघर्ष, परिवार में बिखराव, मुलायम की राष्ट्रीय़ अध्यक्ष पद से विदाई और शिवपाल के निष्कासन के रूप में सामने आया। इसने 2017 के चुनाव में सपा की पराजय की पटकथा लिख दी।
आजम की अधूरी शपथ
बात 2012 के 15 मार्च की है। सपा की सरकार बनी। अखिलेश यादव ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। बारी जब मो. आजम खां की आई तो पता नहीं क्या हुआ वह पूरी शपथ लेने से चूक गए। वह सिर्फ गोपनीयता की शपथ लेकर आगे बढ़ गए। वहां मौजूद अधिकारियों और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने उनसे दोबारा शपथ लेने का आग्रह किया। तत्कालीन राज्यपाल बीएल जोशी ने भी उन्हें टोका। आजम आए और शपथ लेना शुरू किया। इस बार भी वह पद और गोपनीयता दोनों की शपथ लेने के बजाय सिर्फ गोपनीयता की शपथ लेकर मंच से उतर गए। दरअसल, शपथ का प्रारूप दो हिस्सों का होता है। एक में पद की शपथ होती है। दूसरे में गोपनीयता की। पर, आजम ने दोनों बार प्रारूप का गोपनीयता वाला ही हिस्सा पढ़ा। इस पर सवाल उठे तो सरकार ने यह तर्क देकर कि आजम खां ने शपथपत्र के दोनों पन्नों पर दस्तखत किए हैं, इसलिए शपथ ग्रहण पूरा माना जाएगा, मामले को रफा-दफा करने की कोशिश की। पर, वरिष्ठ अधिवक्ता हरिशंकर जैन ने अधूरी शपथ लेने के कारण आजम के खिलाफ उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर दी। उनके मंत्री होने पर सवाल खड़ा किया। तब सरकार को उन्हें 18 मार्च को फिर शपथ दिलानी पड़ी। यह शायद अपने आप में ऐसा पहला मामला था जब किसी मंत्री की तीन बार में शपथ पूरी हुई।

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