‘ऐसा चाहू राज मैं, जहां मिलई सबन के अन्न। छोट-बड़ेन सब सम बसे, रविदास रहे प्रसंन‘।। जी हां संत शिरोमणि रविदास जी की यह सोच थी। समाज में फैले भेद-भाव, छुआछूत का वह जमकर विरोध करते थे. जीवनभर उन्होंने लोगों को अमीर-गरीब हर व्यक्ति के प्रति एक समान भावना रखने की सीख दी. उनका मानना था कि हर व्यक्ति को भगवान ने बनाया है, इसलिए सभी को एक समान ही समझा जाना चाहिए. वह लोगों को एक दूसरे से प्रेम और इज्जत करने की सीख दिया करते थे. संत रविदास की एक खासियत ये थी कि वे बहुत दयालु थे. दूसरों की मदद करना उन्हें भाता था. कहीं साधु-संत मिल जाएं तो वे उनकी सेवा करने से पीछे नहीं हटते थे. गुरु रविदास को रैदास, रोहिदास और रूहीदास के नाम से भी जाना जाता है। भक्तिकाल में साधु-सन्तों, ऋषि-मुनियों, योगियों-महर्षियों और महामानवों ने जन्म लिया है। समाज में फैली कुरीतियों एवं बुराइयों के खिलाफ न केवल बिगुल बजाया, बल्कि समाज को टूटने से भी बचाया। लेकिन संत शिरोमणि रविदास जी ने जो किया वह अद्भूत, अकल्पनीय व बेमिसाल रही। वे अपने अलौकिक ज्ञान से समाज को अज्ञान, अधर्म एवं अंधविश्वास के अनंत अंधकार से निकालकर एक नई स्वर्णिम आभा भी प्रदान की। उनका जीवन ऐसे अद्भुत एवं अविस्मरणीय प्रेरक प्रसंगों से भरा हुआ है, जो मनुष्यों को सच्चा जीवन-मार्ग अपनाने के लिए प्रेरित करते हैं
–सुरेश गांधी
संत रविदास जी का जन्म धर्म एवं आस्था की नगरी काशी के सीर गोवर्धन में एक गरीब परिवार में 1377 में हुआ था। हिंदू कैलेंडर के अनुसार, गुरु रविदास का जन्म माघ पूर्णिमा के दिन हुआ था। इसलिए उनकी जयंती हिंदू चंद्र कैलेंडर के अनुसार माघ पूर्णिमा को मनाई जाती है। वह कवि और लेखक कबीर के अच्छे मित्र और शिष्य के रूप में जाने जाते हैं और उन्होंने गुरु ग्रंथ साहिब’ में 41 भक्ति कविताओं और गीतों का योगदान दिया है। गुरु रविदास को रविदासिया धर्म के संस्थापक के रूप में माना जाता है और गुरु रविदास को मीरा बाई के आध्यात्मिक मार्गदर्शक के रूप में भी जाना जाता था। जब तक वह बड़े होकर शिक्षा-दिक्षा अर्जित करते, समाज में व्याप्त कुरीतियां, जाति-पाति, धर्म, वर्ण, छूत-अछूत, पाखण्ड, अंधविश्वास का साम्राज्य उनके समक्ष बाधा बनकर खड़ा हो गया। लेकिन इन कुरीतियों से विचलित हुए बिना उन्होंने इसके समूल नाश का संकल्प लिया। अनेक मधुर व भक्तिमयी रसीली कालजयी रचनाओं का निर्माण किया और समाज के उद्धार के लिए समर्पित कर दिया। सन्त रविदास ने अपनी वाणी एवं सदुपदेशों के जरिए समाज में एक नई चेतना का संचार किया। उन्होंने लोगों को पाखण्ड एवं अंधविश्वास छोड़कर सच्चाई के पथ पर आगे बढने के लिए प्रेरित किया। संत रविदास जी ने भगवान की भक्ति में समर्पित होने के साथ अपने सामाजिक और पारिवारिक कर्त्तव्यों का भी बखूबी निर्वहन किया. वे बिना लोगों में भेदभाव किए आपस में सद्भाव और प्रेम से रहने की शिक्षा देने के लिए जाने जाते हैं.
संत रविदास को भक्ति काल के महान दार्शनिकों में गिना जाता है. वे एक समाज सुधारक थे. उन्होंने कई भक्ति और सामाजिक संदेशों को अपने लेखन के जरिए अनुनायियों, समुदाय और समाज के लोगों के लिए ईश्वर के प्रति प्रेम भाव को दर्शाया. संत रविदास को आज भी लोग याद करते हैं. उनके जन्म महोत्सव के दिन लोग महान धार्मिक गीतों, दोहों और पदों को सुनते हैं. वैसे तो उनको पुरे विश्व में सम्मान दिया जाता है मगर उत्तर प्रदेश, पंजाब और महाराष्ट्र में उनके भक्ति आंदोलन और भक्ति गीत को कुछ अलग तरह से सम्मान दिया जाता है. हालांकि उनकी सही जन्म तिथि आज तक सामने नहीं आई है. मगर एक अनुमान लगाया जाता है की उनका जन्म 1376, 1377, और 1399 के बीच हुआ था. उनके पिता राजा नगर मल के राज्य में सरपंच थे और उनका जूते बनाने का व्यापार भी था. संत रविदास बचपन से ही भगवान की भक्ति में लीन थे. उनको बहुत सारे उच्च जातियों द्वारा बनाए गए नियमों और मुश्किलों का सामना करना पड़ा था. इसक वर्णन उन्होंने अपने लेखों में भी किया है. बचपन में संत रविदास को पंडित शारदा नन्द पाठशाला में पढ़ने से रोका गया. उच्च जाति के लोगों द्वारा उन्हें वहां पढ़ने के लिए मना कर दिया गया. मगर उनके विचारों को देख पंडित शारदा नन्द को यह एहसास हुआ की संत रविदास बहुत ही प्रतिभाशाली हैं और उन्होंने पाठशाला में दाखिला दे दिया. बचपन में संत रविदास अपने गुरू पंडित शारदा नन्द के पुत्र अच्छे मित्र बन गए थे. रोज दोनों लुकाछिपी खेलते थे. एक दिन उनका दोस्त खेलने नहीं आया. जब बहुत देर तक वह नहीं आया तो रविदास उनके घर गए. जब वे घर पहुंचे तो उन्हें पता चला की उनके मित्र की मृत्यु हो चुकी है. सभी शव को घेरकर मातम मना रहे हैं. तभी रविदास पंडित शारदा नन्द के पुत्र के शारीर के पास जाकर बोले अभी सोने का समय नहीं है, चलो लुकाछिपी खेलें. उनके यह शब्द सुनकर मित्र जीवित हो उठा. ये दृश्य देखकर हर कोई हैरान रह गया.
’मन चंगा तो कठौती में गंगा’’
मन चंगा तो कठौती में गंगा’ रविदास जी का ये दोहा आज भी प्रसिद्ध है. उनका कहना था कि शुद्ध मन और निष्ठा के साथ किए काम का अच्छा परिणाम मिलता है. कहते हैं कि संत रविदास का जन्म चर्मकार कुल में हुआ था, वह जूते बनाने का काम करते थे. उन्होंने कभी जात-पात का अंतर नहीं किया. जो भी संत या फकीर उनके द्वार आता वह बिना पैसे लिए उसे हाथों से बने जूते पहनाते. वह हर काम पूरे मन और लगन से करते थे. फिर चाहे वह जूते बनाना हो या ईश्वर की भक्ति. देखा जाय तो रविदास जी के भक्ति गीतों एवं दोहों ने भारतीय समाज में समरसता एवं प्रेम भाव उत्पन्न करने का प्रयास किया है। हिन्दू और मुसलिम में सौहार्द एवं सहिष्णुता उत्पन्न करने हेतु उन्होंने अथक प्रयास किया। इस तथ्य का प्रमाण उनके गीतों में देखा जा सकता है। वह कहते हैं- तीर्थ यात्राएं न भी करो तो भी ईश्वर को अपने हृदय में वह पा सकते हो। ‘का मथुरा, का द्वारिका, का काशी-हरिद्वार। रैदास खोजा दिल आपना, तह मिलिया दिलदार‘।। उनके जीवन की घटनाओं से उनके गुणों का ज्ञान होता है। एक घटना अनुसार गंगा-स्नान के लिए रैदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो वे बोले, मैं आपके साथ गंगा-स्नान के लिए जरूर चलता लेकिन आज शाम तक किसी को जूते बनाकर देने का वचन दिया है। अगर मैं तुम्हारे साथ गंगा-स्नान के लिए चलूंगा तो मेरा वचन झूठा होगा ही, साथ ही मेरा मन जूते बनाकर देने वाले वचन में लगा रहेगा। जब मेरा मन ही वहां नहीं होगा तो गंगा-स्नान करने का क्या मतलब। इसके बाद सन्त रविदास ने कहा कि यदि हमारा मन सच्चा है तो इस कठौती में भी गंगा होगी अर्थात् ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’। कहते हैं शिष्य ने जब इस बात का मजाक उड़ाया तो सन्त रविदास ने अपने प्रभु का स्मरण किया। चमड़ा भिगोने वाले पानी के बर्तन को छुकर शिष्यों को उसमें झांकने को कहा। जब शिष्य ने उस कठौती में झांका तो उसकी आंखें फटी की फटी रह गईं, क्योंकि उसे कठौती में साक्षात् गंगा प्रवाहित होती दिखाई दे रही थी। धीरे-धीरे सन्त रविदास की भक्ति की चर्चा दूर-दूर तक फैल गई और उनके भक्ति के भजन व ज्ञान की महिमा सुनने लोग जुटने लगे। उन्हें अपना आदर्श एवं गुरु मानने लगे। इस प्रकार के व्यवहार के बाद से ही कहावत प्रचलित हो गयी कि- ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा।’
कृष्ण भक्त परम्परा के कवि माने जाते हैं
रविदास राम और कृष्ण भक्त परम्परा के कवि और संत माने जाते हैं। उनके प्रसिद्ध दोहे आज भी समाज में प्रचलित हैं जिन पर कई भजन बने हैं। उनके पदों में प्रभु भक्ति भावना, ध्यान साधना तथा आत्म निवेदन की भावना प्रमुख रूप में देखी जा सकती है। रैदास जी ने भक्ति के मार्ग को अपनाया था। सत्संग द्वारा उन्होने अपने विचारों को जनता के मध्य पहुंचाया। अपने ज्ञान तथा उच्च विचारों से समाज को लाभान्वित किया। प्रभुजी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग अंग वास समानी।। प्रभुजी तुम धनबन हम मोरा। जैसे चितवत चन्द्र चकोरा।। प्रभुजी तुम दीपक हम बाती। जाकी जोति बरै दिन राती।। प्रभुजी तुम मोती हम धागा। जैसे सोनहि मिलत सुहागा।। प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा। ऐसी भक्ति करै रैदासा।। जैसे पद में रविदास जी ने अपनी कल्पनाशीलता, आध्यात्मिक शक्ति तथा अपने चिन्तन को सहज एवं सरल भाषा में व्यक्त किया। ‘आज दिवस लेऊं बलिहारा, मेरे घर आया प्रभु का प्यारा। आंगन बंगला भवन भयो पावन, प्रभुजन बैठे हरिजस गावन। करूं दंडवत चरण पखारूं, तन मन धन उन परि बारूं। कथा कहैं अरु अर्थ विचारैं, आप तरैं औरन को तारैं। कहिं रैदास मिलैं निज दास, जनम जनम कै कांटे पांस‘। ऐसे पावन और मानवता के उद्धारक सतगुरु रविदास का संदेश निःसंदेह दुनिया के लिए बहुत कल्याणकारी तथा उपयोगी है। ‘जातपात में पात है, ज्यों केलन के पात, रविदास मनुख न जुट सके, जब लग जात न पात।’ यह जाति व्यवस्था मनुष्य को खा रही है, इसके अन्त से ही मानवता का कल्याण होगा। ‘जात पांत के फेर में, उलझी रहयो सब लोग। मानुषता को खात हुई, रविदास जाति कर लोग।।’
‘प्रभु जी तुम चन्दन हम पानी’
रविदास ने अहम का त्याग किया और सर्वस्व समर्पण कर वश परमात्मा की शरण में अपने आप की समर्पित किया। रविदास ने मानव जीवन को दुर्लभ बताया है, उन्हें कहा, मानव जीवन एख हीरे की तरह है, परन्तु उसकी भौतिक सुख अर्जित करने में यदि किया जाय, तो यह जीवन को नष्ट करना होगा। ‘रैनी गंवाई सोय करि, दिवस गंवायो खाय। हीरा जनम अमोल है, कोड़ी बदले जाये।’ रविदास जी ने बताया कि परमात्मा हम सबके अन्दर है, बाहरी वेश भूषा बनाना व्यर्थ है, और भ्रामक भी, सच्चे भक्त बाह्य क्रियाओं से कोई संबंध नहीं रखते, बल्कि अपने ध्यान को बाहर से समेट कर अन्दर ले जाते हैं। मानव जब पूर्ण रूप से भगवान की शरण में जाता है तो मंदिर मस्जिद और राम रहिम में कोई फर्क नहीं दिखता, जब लोग धर्मवाद की लड़ाई लड़ रहे थे, रविदास ने अपने कविता समस्त मानव को जगाने का काम किया। उन्होंने कहा-‘रविदास न पुजइ देहरा, अरू न मस्जिद जाय, जहे तह ईश का वाश है, तहं तहं शीश नवाय।’ रविदास जी ने कहा कि ईश्वर की आराधना करने के लिए गेरूवा वस्त्र, चन्दन, हवन की जरूरत नहीं है। उनकी पूजा सरल, सर्वसाध्य एवं बेमिसाल थी। उनकी भक्ति ‘प्रभु जी तुम चन्दन हम पानी’ आज भी बड़े प्रेम से लोग गाते हैं, उन्होंने अभिव्यक्त किया। ‘मन ही पूजा मन नहीं धूप, मन ही सेवो सहज स्वरूप। पूजा अर्चना न जानू तेरी, कह रैदास कवन गति मेरी।। रविदास जी कहते हैं कि हे स्वामी मैं तो अनाड़ी हूं। मेरा मन तो माया के हाथ बिक गया है, कहा जाता है कि तुम जगत के गुरू हो जगत के स्वामी हो, मैं तो कामी हूं। मेरा मन तो इन पांच विकारों ने बिगाड़ रखा है। जहां देखता हूं वहीं दुरूख ही दुःख है, आखिर क्या करूं प्रभु को छोड़कर किसकी शरण में जाऊं।
‘माधो सब जग चेला, अब विछरै मिलैइ न दोहला’
संत रविदास पूजा, उपासना और धर्म-साधना की दृष्टि में अलग महात्मा है, संत हैं, इसलिए इन्हें संतों में श्रेष्ठ संत शिरोमणि रविदास कहा गया। प्रेम, भक्ति और त्याग को वे एक तन्मय भूमिका में ले जाते थे तथा उनका हर क्षण आध्यात्मिक, पवित्रता में बदलता था। वे अवतार रूपों की पूजा तो नहीं करते थे लेकिन अवतार चरित्रों की सामाजिक चरितार्थ में अवश्य विश्वास करते थे, उनका कहना था-‘बाह्य आडम्बर हौं कबहुं न जान्यौ तुम चरनन चित मोरा, अगुन-सगुन कौ चहूं दिस दरसन तोरा।’ रविदास जी ने उस युग में हो रहे मानव- मानव के प्रति ऊंच-नीच की भावना को समाप्त करना चाहा, धर्म के नाम पर अत्याचार को मिटाना चाहा, तथा ऊंच नीच के भेद को समाप्त कर सबको विवेकपूर्ण समझ देकर मानवता की रक्षा की। यहां तक कि मीराबाई ने रविदास को अपना गुरू माना और उनकी शिष्य बनी। रविदास ने जब उन्हें मंत्र की दीक्ष तो मीरा नाचते कहने लगी-‘पायो रे मैंने राम रतन धन पायो, खोजत फिरत भेद वा घर का। कोई न करत बखानी, रैदास संत मिले मोही सतगुरू।। खास यह है कि संत रविदास जी ने न तो किसी भी विद्यालय में शिक्षा ग्रहण की और न ही किसी गुरु से शिक्षा ली। संत रविदास ने स्वाध्याय और सत्संगति से पर्याप्त ज्ञान प्राप्त किया। उनकी वाणी के द्वारा ज्ञात हुआ कि उनके लिए ईश्वर ही उनका गुरू था। जैसा कि उनकी वाणी में लिखा है ‘माधो सब जग चेला, अब विछरै मिलैइ न दोहला।’ उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि गुरुजी जहां एक उच्च कोटि के भक्त थे। वहीं समय और परिस्थिति के कारण एक समाज सुधारक भी थे। उनका मन चित गंगा की तरह पवित्र तथा शुदू था। मन, वाणी और कर्म से निर्मल इस संत ने जिस जल को छुआ यह यथार्थ में गंगा जल के समान पवित्र हो गया। उनके घर की कटौती एवं सागर में भी गंगा जल हो गया तो उन्हें अपने निर्वाण के लिए गंगा स्नान एवं अन्य तीर्थ स्थानों में जाने की क्या आवश्यकता है?