गृहमंत्री रह चुके शिवराज पाटिल ने बीते दिनों भगवद्गीता के संदर्भ में दिया ऐसा बेतुका बयान
October 26, 20220 Views
केंद्र सरकार में गृहमंत्री रह चुके शिवराज पाटिल ने बीते दिनों भगवद्गीता के संदर्भ में बेतुका बयान दिया है। हिंदुओं के धर्म ग्रंथ गीता को उन्होंने जिहादी ग्रंथ बताया है। वैसे देखा जाए तो कांग्रेस पहले भी हिंदू संगठनों की तुलना तालिबान एवं अन्य आतंकी संगठनों से कर चुकी है। हालांकि बाद में कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने गीता को भारतीय सभ्यता और संस्कृति का मौलिक ग्रंथ बताकर शिवराज पाटिल के बयान से कांग्रेस को अलग कर लिया। लेकिन पाटिल का बयान हिंदू धर्मावलंबियों को आहत तो कर ही गया। उन्होंने यह बयान ऐसे समय दिया है, जब हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया आरंभ हो चुकी है और गुजरात में होने वाली है। स्पष्ट है, भाजपा इस बयान को हिंदुओं के ध्रुवीकरण के रूप में इस्तेमाल करेगी।
सर्वाधिक पवित्र एवं लोकप्रिय ग्रंथ
भगवद्गीता देश का सर्वाधिक लोकप्रिय एवं पवित्र ग्रंथ है। इसे विद्वानों ने ‘परमात्मा का गीत’ भी कहा है। परंतु वास्तव में यह मनुष्य और प्रकृति के बीच ऐसा मूल्यवान संदेश है, जो ब्रह्मांडीय ज्ञान को विज्ञान से जोड़ने के साथ मनुष्य को अपने जीवन मूल्य, दायित्व और स्वाभिमान की रक्षा के लिए प्रेरक संदेश देता है। वैसे भी भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद कुरुक्षेत्र के उस मैदान में हुआ था, जहां युद्ध का होना सुनिश्चित होने के पश्चात भी अर्जुन संबंधियों के मायामोह में शस्त्र डालने की मानसिकता बना चुके थे। किंतु कृष्ण के प्रेरक संदेश से अभिप्रेरित होकर, उन्होंने रक्त संबंधियों से युद्ध नहीं करने की ठान ली। अर्जुन का यह संकल्प न तो किसी दूसरे देश की भूमि और सत्ता हड़पने के लिए था और न ही तलवार के बूते मतांतरण के लिए? अतएव यह संदेश सत्य के यथार्थ का बोध कराने वाला संवाद है।
ब्रह्मांड के खगोलीय ज्ञान का बोध कृष्ण-अर्जुन के पहले संवाद मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि से ही आरंभ हो जाता है। कृष्ण कहते हैं कि मैं महीने में अगहन हूं। अर्थात इस संवाद के शुरू होने से पहले ही भारतीय ऋषियों ने काल-गणना को जान लिया था। अतएव गीता को चारों वेद, 108 उपनिषद् और सनातन हिंदू दर्शन के छह शास्त्रों के सार रूप में जाना जाता है। इसी आधार पर दुनिया के विद्वान इसे समावेशी विचार एवं सांस्कृतिक-आध्यात्मिक दर्शन का ग्रंथ मानते हैं। वस्तुतः गीता को नई शिक्षा नीति के पाठ्यक्रम में शामिल करने और राष्ट्र ग्रंथ की श्रेणी में रखने की मांग उठती रही है। गीता के मनीषी ज्ञानानंद महाराज ने इस दृष्टि से एक वर्णमाला भी तैयार की है, जिसमें ‘अ’ से अनार और ‘आ’ से आम के वनिस्पत ‘अ’ से अर्जुन और ‘आ’ से आर्यभट्ट पढ़ाया जाएगा। ये शब्द अर्जुन के रूप में एक समर्थ योद्धा और आर्यभट्ट के रूप में खगोल विज्ञान से जुड़े हैं। साफ है, गीता का ज्ञान शौर्य से शक्ति और विज्ञान के सामर्थ्य से उपजा है।
ज्ञान का दिव्य स्रोत
गीता ज्ञान का ऐसा दिव्य स्रोत है, जो स्वयं व्यक्ति से मैत्री का संदेश देता है। यह एक ऐसा मनोवैज्ञानिक संवाद है, जो अवसाद से घिरे मनुष्य को उबारने का काम करता है। मौलिक विचार प्रकट करते हुए कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, ‘मनुष्य को चाहिए कि वह अपने मन के द्वारा अपने जन्म और मृत्यु रूपी बंधन से उद्धार करने की कोशिश करे। यही ज्ञान उसे दयनीयता से बाहर निकाल सकता है।’ अर्जुन अपने संबंधियों को शत्रु के रूप में देख इसी निम्नता के बोध से घिरकर संग्राम से पलायन की मानसिकता बना बैठे थे। कृष्ण कहते हैं, ‘मन के भीतर जो जीवात्मा है, वही आपकी सच्चा मित्र और शत्रु है।’ अतएव हीनता और अवसाद से घिरे मनुष्य को जीवात्मा से संवाद करने की आवश्यकता है।
प्रत्यक्षतः दुनिया शांति और स्थिरता की बात करती है। लेकिन शासकों के पूर्वाग्रह, अंतर्द्वंद्व, आधुनिक विकास और सत्ता की प्रतिस्पर्धा ऐसी महत्वाकांक्षाएं जगाते हैं कि दुनिया कहीं ठहर न जाए? इसलिए भीतर ही भीतर धर्म, संप्रदाय, जाति और नस्ल के भेद के आधार पर दुनिया को सुलगाए रखने का काम भी यही शासक करते हैं। गीता का संदेश है, उठो और चुनौतियों के विरुद्ध लड़ो, क्योंकि अर्जुन अपने स्वजनों, गुरुजनों और मित्रों का संहार नहीं करना चाहते थे। वे युद्ध से विमुख हो रहे थे। यदि इस मानव-संघर्ष में अर्जुन धनुष-बाण धरा पर धर देते तो सत्ताधारी कौरव जिस अनैतिकता व अराजकता के चरम पर थे, वह जड़ता टूटती ही नहीं? यथास्थिति बनी रहती। परंपरा में चले आ रहे तमाम ऐसे तत्व शामिल होते हैं, जो वाकई अप्रासंगिक हो चुके होते हैं। मूल्य-परिवर्तनशील समय में शाश्वत बने रहें, इसलिए परंपरा में परिवर्तन आवश्यक है। गीता में परिवर्तन के क्रम में प्रासंगिक कर्म की व्याख्या की गई है। इसीलिए यह युगांतरकारी ग्रंथ है।
शिक्षा में गीता का पाठ क्यों शामिल नहीं किया जा सकता?
विश्व के प्रमुख ग्रंथों में गीता ही एक ऐसा ग्रंथ है, जिसका अध्ययन व्यक्ति में सकारात्मक सोच के विस्तार के साथ उसका बौद्धिक दायरा भी बढ़ाता है। फलतः गीता के संदर्भ में विभिन्न लोग एक सौ से भी ज्यादा भाष्य लिख चुके हैं। अन्य धर्म-ग्रंथों की तो व्याख्या ही निषेध है। हालांकि कोई धर्म ग्रंथ चाहे वह किसी भी धार्मिक समुदाय का हो, दुनिया के सभी देशों के बीच उनका सम्मान करने की एक अघोषित सहमति होती है। गीता विलक्षण इसलिए है, क्योंकि यह सनातन धर्मावलंबियों का आध्यात्मिक ग्रंथ होने के साथ दार्शनिक ग्रंथ भी है। इसमें मानवीय प्रबंधन के साथ समस्त जीव-जगत व जड़-चेतन को एक कुटुंब के रूप में देखा गया है और उनकी सुरक्षा की पैरवी की गई है। जबकि अन्य धर्मग्रंथ ऐसा संदेश नहीं देते हैं। वे एक संप्रदाय और एक धर्म की कट्टरता से पैरवी करते हैं। इसीलिए भारतीय प्रबंधकीय शिक्षा में भगवान श्रीकृष्ण के उपदेश और गीता के सार को स्वीकार किया गया है। जब प्रबंधन की शिक्षा गीता के अध्ययन से दिलाई जा सकती है, तो शिक्षा में गीता का पाठ क्यों शामिल नहीं किया जा सकता? जबकि ईसाई मिशनरियों और इस्लामी मदरसों में धर्म के पाठ, धार्मिक प्रतीक चिन्हों के साथ खूब पढ़ाए जाते हैं।
गीता ज्ञान की जिज्ञासा जगाने वाला ग्रंथ है। इसीलिए प्राचीन दर्शन परंपरा के विकास में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। आदि शंकराचार्य से लेकर संत ज्ञानेश्वर, महर्षि अरविंद, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, विनोबा भावे, डा. राधाकृष्णन, ओशो और प्रभुपादजी महाराज जैसे अनेक मनीषी-चिंतकों ने गीता की युगानुरूप मीमांसा करते हुए, नई चिंतन परंपराओं के बीच नए तत्वों की खोज की है। इतना ही नहीं, मुगल बादशाह दारा शिकोह और महान विज्ञानी अल्बर्ट आइंस्टीन तक को एकेश्वरवाद पर आधारित इस ग्रंथ ने भीतर तक प्रभावित किया था। दारा शिकोह ने गीता का फारसी भाषा में अनुवाद भी किया था। तय है, व्यक्ति और समाज की रचनात्मकता में गीता का अतुलनीय योगदान रहा है। कालजयी नायकों में गीता के स्वाध्याय से उदात्त गुणों की स्थापना हुई है। इसीलिए ये महापुरुष कर्म की श्रेष्ठता को प्राप्त हुए।